इस दुनिया में मनुष्य की खोज आनन्द और शांति की खोज करना है। मनुष्य के मन के भीतर हमेशा कुछ न कुछ निहित है, जो उसे बाहर से कुछ अपने भीतर भरने के लिए खोजने की कोशिश पर मजबूर करता है, जो कि उसके प्राणों को आराम दिला सके। अतीत में लाखों लोगों ने उस ‘कुछ’ के बारे में खोज करने के लिए अपने सर्वोत्तम प्रयास को लगाया है, जो कि परम वास्तविकता के रूप में जाना जाता है, यही उनके मनों में आनन्द या शाश्वत शांति को ला सकता है। नतीजतन, सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं, जिनमें विभिन्न धर्मग्रंथों की पवित्र पुस्तकें भी शामिल हैं। इन किताबों में उस परम वास्तविकता के बारे में बहुत कुछ बताया गया है और यह दावा करते हैं कि वे या तो वे लेखक के ऊपर प्रकाशित हुए थे (जैसे कि – ग्रंथ बाइबल) या फिर लेखक ने उन्हें उस परम वास्तविकता, जिसे सबसे प्रसिद्ध शब्दों में परमेश्वर (वाहेगुरु) कहा जाता है, से सुना (श्रुति-जैसे कि वेद) या फिर उन्हें सीधे बोल कर लेखक के हाथों से लिखवाया (श्रुत-लेखन जैसे कि कुरान) था। हालांकि, सत्य के एक साधक (सिख) उन सभी के बीच में एक प्रकार की समानता पाता है, जो यह है कि उन्होंने ईश्वर को मानवशास्त्रीय भाषा में व्यक्त किया है।
मानवशास्त्रीय भाषा और कुछ नहीं, लेकिन इन धर्मग्रंथों के लेखकों ने ईश्वर में मानवीय विशेषताओं, गुणों और भावनाओं को स्वीकार किया है और माना है कि उसका व्यक्तित्व मनुष्य जैसा ही है। अधिकांश समयों में सत्य का एक साधक देखता है कि इन लेखकों ने स्वयं को मानवीय भाषा में सटीकता के साथ व्यक्त किया है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने ईश्वर को आँखें, कानों और पसंद करने या न करने वाले व्यक्तित्व के रूप में माना है। ऐसा ही कुछ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भी देखा जा सकता है,
“हजारों तेरी आँखें हैं, पर तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं, पर तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है” ।[i]
गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 13
हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा कहते हुए ये शास्त्र कह रहे हैं कि ईश्वर एक मनुष्य हैं, बल्कि वे यह दावा कर रहे हैं कि ईश्वर के निर्माता होने के कारण उसमें इन सभी गुणों को होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं तो ईश्वर मनुष्य के भावों और मनोभावों को नहीं समझेगा। जब यह कहा जाता है कि ईश्वर पिता, माता, भाई या मित्र है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर का कोई परिवार है या वह जैविक रीति से किसी का पिता या माता है।
इसके बजाय उसके पास पिता, माँ, भाई या मित्र जैसे गुण हैं, जो एक परिवार या समाज में पाए जाते हैं,
“(हे भाई!) जैसे माँ अपने बच्चों की संभाल करती है, वैसे ही परमात्मा अपने (पैदा किए) सारे जीव-जंतुओं की पालना करता है। (सब के) दुखों के नाश करने वाले और सुखों के समुंदर मालिक प्रभु सब जीवों को खुराक देता है”[ii]
गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 105
इसे अर्थपूर्ण बनाने के लिए एक साधक को यह समझना चाहिए कि ईश्वर को मानवीय भाषा में बोलते समय शाब्दिक रूप से नहीं लिया जाना चाहिए। अगर ऐसा होता है, तो एक साधक गंभीर गलती कर रहा है और यह धार्मिक अर्थों में ईशनिंदा कहा जाएगा, “उस प्रभु के ना माँ ना पिता ना उसका कोई पुत्र ना ही रिश्तेदार। ना उसे काम-वासना सताती है, ना ही उसकी कोई पत्नी है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 597)।[iii] एक साधक को यह समझना चाहिए कि ईश्वर लिंग से परे हैं, लेकिन उसे हमेशा ही विभिन्न रूपकों के माध्यम से वर्णित किया जाता है, इसलिए जब यह कहा जाता है कि, “हे मित्र! (हमारा) एक ही प्रभु पिता है, हम एक ही प्रभु-पिता के बच्चे हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 612),[iv] तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम सभी ईश्वर द्वारा शाब्दिक अर्थों में उसके द्वारा जन्माए गए हैं।
नतीजतन, मानवीय भाषा में ईश्वर को मनुष्य के स्तर तक नीचे आते हुए देखा जाता है और फिर ऐसे शब्दों के साथ उसके विषय में संप्रेषित किया जाता है, जिसे आसानी से समझा जा सकता है, “हे प्रभु! तेरा ना कोई खास रंग है और ना कोई खास चक्र-चिन्ह है। फिर भी, हे हरि! तू (सारे जगत में) प्रत्यक्ष दिखाई देता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 74)।[v] हालांकि, एक साधक जानता है कि, “हे भाई! परमात्मा सब की जिंद व प्राणों के वास्ते सुखों का समुंदर है, सभी का माँ-बाप है, सबकी पालना करता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 209),[vi] लेकिन वह नहीं जानता कि उस तक कैसे पहुँचा जाए, “हे पिता प्रभु! मुझे पता नहीं कि तुझे प्रसन्न करने का तरीका क्या है?” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 51),[vii] क्योंकि वह अपनी गलती जानता है, “एक मूर्ख बच्चे की तरह, मैंने गलतियाँ की हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 51)।[viii] वह अपने मन में जानता है कि वह अपनी गलती के कारण अपने पिता के पास नहीं जा सकता, “मैं उस पिता के पास कैसे जाऊँ?” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 476)।[ix] वह अपने पिता की संगति में रहना तो चाहता है, लेकिन उसे नहीं पता कि उसके तक कैसे पहुंचा जाए, ”(पर यह कामादिक) पाँच वैरी सताते (ही) रहते हैं। (इनको) किस तरीके से मारा जाए?” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 1363)।[x] ये पाँच शत्रु: वासना, क्रोध, लोभ, मोह, और अभिमान हैं, जो सब कुछ उससे लूट लेते हैं और एक साधक को ईश्वर से दूर रखते हैं, “(हे भाई! कामादिक) पाँच वैरी, जगत (के आत्मिक जीवन) को लूट रहे हैं। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले और माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को ना अकल है ना ही (इस लूट की) खबर है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 113)।[xi] वे साधक के वास्तविक शत्रु हैं। वे सत्य के एक साधक के स्वभाव में पाए जाते हैं (हाऊमैं – मैं या जिसे दूसरे शब्दों में झूठी अहंकार-भावना कहा जाता है)। वे सभी प्रकार से फाड़ खाने वाला, पीड़ा देने वाला और सभी तरह के गुणों को नष्ट करने वाले हैं।
इसलिए, वह उसकी दया को पाने के लिए पुकार उठता है, “हे मेरे मित्र प्रभु! मुझ गुण-हीन को बचा ले” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 205)।[xii] उसकी पुकार इसलिए है, क्योंकि उसने अपने पिता की संगति खो दिया है। दूसरे शब्दों में, उसने अपने पिता के पुत्रत्व को खो दिया है। वह उसकी सन्तान नहीं है। इसलिए, उसे सलाह दी जाती है कि वह सतगुरु से मुलाकात करे, “पूरा गुरु सत्गुरू (मुझे इस तरह प्यारा है, जैसे) मेरी मां और मेरा पिता है (जैसे) पानी को मिल के कमल फूल खिलता है (वैसे ही) गुरु को (मिल के मेरा हृदय गद्-गद् हो जाता है)” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 94),[xiii] ताकि वह टूटी हुई संगति की बहाली के मार्ग को प्राप्त कर सके जिसे केवल सतगुरु ही दिखा सकता है, “जब मुझे सतिगुरु मिला तो उसने (पिता-प्रभु के देस का) राह दिखा दिया” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 476)।[xiv] अब, एक साधक जानता है कि अगर प्रभु ईश्वर अपनी कृपा और उस पर अपनी दया को दिखाता हैं, तो उसका पुत्रत्व और संगति बहाल हो जाएंगे, “जैसे माँ-बाप (बच्चों को) पालते हैं, वैसे ही प्रभु कृपा करके अपने सेवकों को अपने बनाए रखता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 623)।[xv] वास्तव में न केवल संगति और पुत्रत्व की बहाली होती है, बल्कि इसे बाद उसे संभाले भी रखता जाएगा, “हे प्रभु! नानक तेरा दास है, (इस दास की) रक्षा उसी तरह करता रह, जैसे पिता अपने पुत्रों पर कृपालु हो के करता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 608)।[xvi]
अब यह हमें कुछ सवालों के जवाब की खोज करने की ओर ले जाता है, जो हमारी ऊपर की चर्चा से पैदा होते हैं। चूंकि परम पिता परमेश्वर ने हम सभी को बनाया है और चूँकि हम सभी उसकी सन्तान हैं, तो फिर मनुष्य ने उसे क्यों और कैसे खो दिया? वह कौन सी गलती थी, जिसने मनुष्य को पिता की कृपा से नीचे गिरा दिया? अपने प्रयासों से मनुष्य पिता की संगति में वापस क्यों नहीं जा सकता है? वे पाँच शत्रु उसके भीतर क्यों वास करते हैं, और उसे अपने प्रभु परमेश्वर से क्यों नहीं मिलने देते हैं? उसकी पुकार उसके पिता तक क्यों नहीं पहुँचती है और उसे खुशी और परम आनन्द क्यों नहीं मिलता है? वह सतगुरु कहाँ है, जो उसे वह कृपा अर्थात अनुग्रह दे सकता है, जो उसे अपने पिता की उपस्थिति में खड़ा कर देती है? इसका उत्तर स्पष्ट रूप से ग्रन्थ बाइबल में दिया गया है।
एक साधक ग्रन्थ बाइबल में देखता है कि ईश्वर में वे सभी गुण पाए जाते हैं, जो पिता, माता, भाई, वधू, मित्र में पाए जाते हैं और ऐसे ही अन्य होते हैं, “एक ईश्वर और सभी के पिता, जो सभी पर और सभी में हैं” (इफिसियों 4:6) और “क्या यह हो सकता है कि कोई माता अपने दूधपीते बच्चे को भूल जाए और अपने जन्माए हुए लड़के पर दया न करे? हाँ, वह तो भूल सकती है, परन्तु मैं तुझे नहीं भूल सकता?” (यशायाह 49:15), हालांकि यह स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि ईश्वर लिंग से परे है, “क्योंकि आत्मा आत्मा है, और जहां भी प्रभु की आत्मा है, स्वतंत्रता है” (2 कुरिन्थियों 3:17)। पिता परमेश्वर की इच्छा है कि उसकी सन्तान उसकी संगति में वापस आ जाए, “तब वह [एक बीमार साधक, जो अपने पुत्रत्व को खो चुका था] उठकर, अपने पिता के पास चला : वह अभी दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देखकर तरस खाया, और दौड़कर उसे गले लगाया, और बहुत चूमा” (लूका 15:20)। समम-समय पर यह पुष्टि की गई है कि पिता की इच्छा है कि उसका कोई भी प्रिय नाश न हो,
“क्योंकि परमेश्वर [पिता] ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र [सतगुरु यीशु मसीह] दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए”
यूहन्ना 3:16
अब, कई लोग पिता परमेश्वर और सतगुरु यीशु मसीह के बीच के रिश्ते को उसके पुत्र के रूप में समझने में कठिनाई महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि ईश्वर मसीह का जैविक पिता है, लेकिन हमारी ऊपर की गई चर्चा से स्पष्ट है कि ईश्वर कभी भी किसी को जैविक रूप से जन्म नहीं देता और न ही देगा क्योंकि वह लिंग से परे है। लेकिन उसी समय एक साधक को यह नहीं भूलना चाहिए कि ईश्वर का एक गुण यह है कि वह सर्वशक्तिमान है और उसके सर्वशक्तिमान होने के कारण उसके लिए कुछ भी करना संभव है, “हे प्रभु यहोवा, तू ने बड़ी सामर्थ्य और बढ़ाई हुई भुजा से आकाश और पृथ्वी को बनाया है! तेरे लिये कोई काम कठिन नहीं है” (यिर्मयाह 32:17)।
इसलिए, आइए हम सबसे पहले इस बात पर ध्यान दें कि परमेश्वर पिता और पुत्र – सतगुरु यीशु मसीह के बीच का संबंध एक रहस्य बना रहता है, यदि हम इन उपमाओं को शाब्दिक अर्थों में लेते हैं। लेकिन ग्रन्थ बाइबल जो कहता है वह यह है कि यह स्वयं ईश्वर ही था जो मानवीय रूप में प्राकृतिक और भौतिक सीमाओं के भीतर रहने के लिए स्वयं इस पृथ्वी पर आ गया।
मनुष्य को ‘दूर’ और ‘निकट’ की उपमाओं को समझाने के लिए सतगुरु यीशु मसीह ने इन दो शब्दों ‘पिता’ और ‘पुत्र’ का इस्तेमाल किया है। यह सतगुरु यीशु मसीह और उसके शिष्यों में से से एक के साथ हुई एक वार्तालाप में स्पष्ट दिखाई देता है,
फिलिप्पुस ने उससे कहा, “हे प्रभु, पिता को हमें दिखा दे, यही हमारे लिये बहुत है।” यीशु ने उससे कहा, “हे फिलिप्पुस, मैं इतने दिन से तुम्हारे साथ हूँ, और क्या तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है। तू क्यों कहता है कि पिता को हमें दिखा? क्या तू विश्वास नहीं करता कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है? ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है। मेरा विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है; नहीं तो कामों ही के कारण मेरा विश्वास करो। (यूहन्ना 14:8-11)।
इस प्रकार, एक साधक पाता है कि परमेश्वर और सतगुरु यीशु मसीह एक हैं और दो अलग-अलग पहचान नहीं हैं। यद्यपि मानवीय मन के लिए यह समझना थोड़ा कठिन हो सकता है कि इस संबंध को कैसे बनाए रखा गया है लेकिन यह स्पष्ट है कि शब्द अर्थात – सतगुरु यीशु मसीह मानवीय प्रयासों के विफल होने के बाद ही पृथ्वी पर आए थे “हे नानक! कृपा-दृष्टि वाला प्रभु अगर उन्हें बख्श ले तो सतिगुरु के शब्द [सतगुरु यीशु मसीह] के द्वारा उस में मिल जाते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 645)।[xvii] अब यह हमें हमारी दूसरे मुख्य बात की ओर जाता है कि इसका मतलब यह नहीं है कि वह जन्म-मरण के चक्र (पुनर्जन्म) में आया था, बल्कि अपनी सर्वसामर्थी होने के नाते वह अपने ऊपर मनुष्य के शरीर को धारण करता है (ठीक वैसे ही जैसे एक व्यक्ति अपने कोट या शर्टको पहनता है), जिससे कि वह एक कुंवारी लड़की से पैदा लेकर हमारे जैसा हो जाए, “देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी, और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा,” जिसका अर्थ है – परमेश्वर हमारे साथ ” (मत्ती 1:23)।
एक बार फिर एक कुंवारी के द्वारा एक बच्चे को जन्म देना कैसे संभव है? सतगुरु यीशु मसीह ने जो उत्तर दिया है, वह यह है कि, “मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता, परन्तु परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है” (मत्ती 19:26) क्योंकि परमेसश्वर सर्वशक्तिमान है, इसलिए वह कुछ भी कर सकता है।
यह पिता के पास वापस आने की पूरी पहेली को हल कर देता है। मनुष्य मूल आज्ञा का उल्लंघन करके पाप में गिर गई थी, जिसे परमेश्वर ने उन्हें दिया था, “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, क्योंकि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। मनुष्य ने परमेश्वर की संगति को खो दिया था और इस तरह से अपने पुत्रत्व को भी। पाप मनुष्य के जीवन को लूटने के लिए आगे बढ़ा और उसे स्वभाव से ही बीमार बना दिया (संसार रोगी है; नाम दारू है) जैसा कि ऊपर देखा गया है। वह उन पाँचों अवगुणों का बंदी हो गया जो उस पर शासन करते हैं। मनुष्य के निर्माण के समय बुराई की उपस्थिति नहीं थी, लेकिन मनुष्य की अवज्ञा के बाद बुराई उसमें प्रवेश कर गई और इस तरह उसे जकड़ लिया। इस प्रकार, शुरुआत में मनुष्य का स्वभाव बिना किसी बीमारी के पाप रहित था। हालाँकि, सतगुरु यीशु मसीह के आने के बाद इस भ्रष्टाचार की मेज को उलट दिया गया है,
“उसने तुम्हें भी, जो अपने अपराधों और अपने शरीर की खतनारहित दशा में मुर्दा थे… सतगुरु यीशु मसीह के साथ जिलाया, और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया, और विधियों का वह लेख जो हमारे नाम पर और हमारे विरोध में था मिटा डाला, और उसे क्रूस पर कीलों से जड़कर सामने से हटा दिया है। और सतगुरु यीशु मसीह ने प्रधानताओं (बुराईयों) और अधिकारों (बिमारियों) को ऊपर से उतारकर उनका खुल्लमखुल्ला तमाशा बनाया और क्रूस के द्वारा उन पर जय-जयकार की ध्वनि सुनाई”
कुलुस्सियों 2:13-15
जिस क्षण सतगुरु यीशु मसीह ने शक्तियों (बुराइयों) और अधिकारियों (बीमारियों) का तमाशा बनाया, ठीक उसी क्षण मनुष्य परमेश्वर की संगति में वापस आ गई। मनुष्य को उसका पुत्रत्व बहाल कर दिया गया। सतगुरु यीशु मसीह ने, “उन्हें परमेश्वर की सन्तान होने का अधिकार दिया” (यूहन्ना 1:12)। इस प्रकार वे अब उस सब कुछ के उत्तराधिकारी हैं, जो ईश्वर के पास है, “और यदि सन्तान हैं तो वारिस भी, वरन् परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, कि जब हम उसके साथ दु:ख उठाएँ तो उसके साथ महिमा भी पाएँ” (रोमियों 8:17)। इसका मतलब यह नहीं है कि ये अवगुण उससे दूर हो गए हैं, परन्तु अब इन अवगुण के पास उसके ऊपर शासन करने की कोई शक्ति नहीं है, जब तक कि मनुष्य स्वयं का आत्मसमर्पण उसके आगे नहीं करता है।
मानवीय भाषा में कहें तो अब सतगुरु यीशु मसीह उनका बड़ा भाई है, “क्योंकि पवित्र करनेवाला और जो पवित्र किए जाते हैं, सब एक ही मूल से हैं; इसी कारण वह उन्हें भाई कहने से नहीं लजाता” (इब्रानियों 2:11)। यह हमें भ्रमित ना करे। ग्रन्थ बाइबल स्पष्ट करता है कि एक बड़े भाई के रूपक को केवल कुछ वर्णन करने के लिए उपयोग किया गया है, जिसे मानवीय मन अन्यथा नहीं समझ सकता है। लेकिन यहाँ दी गई भाषा एक साधक को गहरी आध्यात्मिक सोच में ले जाती है,
“क्योंकि जिसके [सतगुरु यीशु मसीह] लिये सब कुछ है और जिसके [सतगुरु यीशु मसीह] द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुँचाए, तो उनके उद्धार के कर्ता को दु:ख उठाने के द्वारा सिद्ध करे”
इब्रानियों 2:10
जो लोग परमेश्वर के पिता की संगति में वापस आना चाहते हैं, जो लोग अपने पुत्रत्व को फिर से प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सतगुरु यीशु मसीह के जैसे बनने के लिए कहा जाता है, क्योंकि अनुसरण करने के लिए वही हमारा आदर्श है, “और तुम इसी के लिये बुलाए भी गए हो, क्योंकि मसीह भी तुम्हारे लिये दु:ख उठाकर तुम्हें एक आदर्श दे गया है कि तुम भी उसके पद-चिह्नों पर चलो…” (1 पतरस 2:21-25)। यदि एक सत्य साधक ग्रन्थ बाइबल के शब्दों पर ध्यान नहीं देता है, तो वह बहुत बड़े नुक्सान में है, क्योंकि,
“हे प्रभु! तू मेरा पिता (की जगह) है तू ही मेरी माँ (की जगह) है। तू मेरा रिश्तेदार है, तू ही मेरा भाई है। (हे प्रभु! जब) तू ही सब जगहों पे मेरा रक्षक है, तो कोई डर मुझे पोह भी नहीं सकता, कोई चिन्ता मुझ पर जोर नहीं डाल सकती?” [xviii]
गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 103
[i] सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तुोही ॥
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
[ii] अपुने जीअ जंत प्रतिपारे ॥ जिउ बारिक माता समारे ॥
दुख भंजन सुख सागर सुआमी देत सगल आहारे जीउ ॥२॥
[iii] ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥
[iv] एकु पिता एकस के हम बारिक तू मेरा गुर हाई ॥
[v] तूं वरना चिहना बाहरा ॥ हरि दिसहि हाजरु जाहरा ॥
[vi] सभ को मात पिता प्रतिपालक जीअ प्रान सुख सागरु रे ॥
[vii] पिता हउ जानउ नाही तेरी कवन जुगता ॥
[viii] भूलहि चूकहि बारिक तूं हरि पिता माइआ ॥१॥
[ix] तिसु पिता पहि हउ किउ करि जाई ॥
[x] पंच सतावहि दूत कवन बिधि मारणे ॥
[xi] पंच दूत मुहहि संसारा ॥ मनमुख अंधे सुधि न सारा ॥
[xii] राखु पिता प्रभ मेरे ॥
[xiii] मेरा मात पिता गुरु सतिगुरु पूरा गुर जल मिलि कमलु विगसै जीउ ॥३॥
[xiv] सतिगुर मिले त मारगु दिखाइआ ॥
[xv] करि किरपा अपुने करि राखे मात पिता जिउ पाला ॥१॥ रहाउ॥
[xvi] राखि लेहु नानकु जनु तुमरा जिउ पिता पूत किरपाला ॥४॥१॥
[xvii] नानक नदरी बखसि लेहि सबदे मेलि मिलाहि ॥१॥
[xviii] तूं मेरा पिता तूंहै मेरा माता ॥ तूं मेरा बंधपु तूं मेरा भ्राता ॥ तूं मेरा राखा सभनी थाई ता भउ केहा काड़ा जीउ ॥१॥