14.तेरे अद्वितीय गुणों को कौन जान सकता है?

इस दुनिया में जीवन को कुछ निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित माना जाता है। इन सिद्धान्तों को कभी-कभी गुणों के रूप में जाना जाता है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक व्यक्ति क्या विश्वास करता है या किस सिद्धान्त का पालन करता है, ये सिद्धांत हमेशा उसकी जीवन शैली, गतिविधियों और वैचारिक ढांचे के पर्दे के पीछे काम करते हैं। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि चाहे एक व्यक्ति नास्तिक या अज्ञेयवादी ही क्यों न हो, वह अपने जीवन को धार्मिक, दार्शनिक या नैतिक गुणों के आधार पर ही लिए चलेगा। एक व्यक्ति खुद को इन गुणों से मुक्त नहीं कर सकता क्योंकि ये उसके अस्तित्व की गहराई में पाए जाते हैं। एक गुण को ‘कुछ अच्छा करने के लिए एक आदतन किए जाने वाला कार्य और निर्धारित दृष्टिकोण’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। कुछ विचारक कहते हैं कि मन, हृदय और व्यवहार की कई आदतों द्वारा गुण दर्शाए जाते हैं। गुणों के माध्यम से वैचारिक जीवन का विकास किया जा सकता है।

इस संसार में सैकड़ों तरह के गुण पाए हैं और विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के विद्वान उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बाँटते हैं। इन उदाहरणों में शामिल निम्नलिखित शामिल हैं: नैतिक जीवन से जुड़े गुण जैसे ईमानदारी, न्याय और साहस हैं। हालाँकि अन्य गुण धर्मविज्ञान से संबंधित हैं या विश्वास, अनुग्रह, आशा, दान जैसे गुण ईश्वरीय तत्व के बारे में सोच विचार करने से संबंधित हैं। यद्यपि ये सूची स्वयं में ही व्यापक है, तथापि एक व्यक्ति आसानी से गुणों को दूसरे व्यक्ति के जीवन में देख सकता है। सत्य के एक साधक (सिख) को यह जानना चाहिए कि यद्यपि वह अपने जीवन में कई तरह के गुणों को देख सकता है, तथापि उनमें से कुछ केवल सर्वशक्तिमान ईश्वर (अकाल पुरख) से संबंधित हैं, जो इन गुणों का सृष्टिकर्ता है।

“हे प्रभु! तेरे बेअंत गुण हैं, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। मैं तेरे कितने गुण गा सकता हूँ?” [i]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 453

इसके अलावा, वह अपनी इच्छा (हुकम) के अनुसार किसी को भी किसी भी तरह के गुण देने की योग्यता देने की शक्ति रखता है। ये ऐसे गुण हैं, जो ईश्वर के हैं और साधक के जीवन में शाश्वत जीवन को लाते हैं। वे आनंद (परम आनंद) को लाते हैं और एक साधक को (नदिर-कृपा के माध्यम से), मुक्ति (छुटकारे) के शिखर पर ले जाते हैं, “(हे भाई!) (उसकी इनायत से) मैंने कीमती मानव जन्म (की बाजी) जीत ली है, दुबारा मैं (मोह के मुकाबले में) बाजी नहीं हारूँगा” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 241)।[ii]

एक बार जब, सत्य का एक साधक सच्चे गुरु (सतगुरु) के द्वारा उसे दिए गए गुणों में से एक को भी प्राप्त कर लेता है, तो फिर वह सत्य (सचखंड) की सीमा में प्रवेश करता है। सिख धर्म में, एक साधक को कम से कम इन गुणों की प्राप्ति के लिए प्रभु परमेश्वर (साहिब प्रभु) से विनती करने के लिए कहा जाता है। गुणों के अभाव में अनन्त काल के लिए अलगाव के अलावा और कुछ भी नहीं मिलता है, जिस मनुष्यों ने गुण ग्रहण कर लिए हैं परमात्मा उनके मन में सदा बसता है। पर, जिन्होंने औगुण इकट्ठे किये हैं, उन्हें कहीं दूर बसता हुआ प्रतीत होता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 27)।[iii]  सत्य के एक साधक (सिख) को दिन और रात प्रार्थना करने के लिए कहा जाता है ताकि वह कम से कम एक गुण तो अवश्य ही प्राप्त करे क्योंकि एक साधक के लिए एक गुण भी इस गन्दगी (भव सागर) से छुटकारे के लिए पर्याप्त है, हे मालिक प्रभु! जैसे तू (हम जीवों को जीवन-मार्ग पर) चलाता है, वैसे ही हम चलते हैं (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 919)।[iv]

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में यह भी कल्पना की गई है कि उसके गुणों की सँख्या असँख्य है, हे सबसे ऊँचे, अपार और बेअंत मालिक प्रभु! कोई भी मनुष्य तेरे (सारे) गुण नहीं जान सकता?” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 802)।[v] फिर भी, एक साधक के लिए यह जानना मुश्किल है क्योकि, हे प्रभु! तेरे अनेक गुण हैं, मुझे किसी एक की भी पूरी समझ नहीं हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 596)।[vi]

इसका कारण यह है कि,

“(एक तरफ जीव-स्त्री) मूर्ख है अंजान है भोली है (कि विकारों की लपटों से बचना नहीं जानती) और गुण-हीन है, (दूसरी तरफ) प्रभु-पति अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है (ऐसी अवस्था में, ऐसी जीव-स्त्री का प्रभु-पति से मिलाप कैसे हो?)”[vii]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 245

फिर भी, इसके बावजूद, एक साधक अपने गुरु (साहिब) के गुण को पा सकता है,

“अपार प्रभु की महिमा वाले शब्द की इनायत से वह जीव-स्त्री प्यारे प्रभु को मिल जाती है, सदा उसके गुण अपने हृदय में संभाल के रखती है, प्रभु के गुण उसके मन में टिके रहते हैं”[viii]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 439

इसलिए, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक साधक को सतगुरु की खोज करनी चाहिए, हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जा के गुरु की शरण पड़ी रह, गुरु परमात्मा के गुणों की बात बताता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 538),[ix]  क्योंकि केवल गुणों को जानने से ही एक साधक को बचाया जाएगा, हे प्रभु! जो जीव-स्त्रीयाँ जब तेरे गुण पहचानती हैं तब वे तेरे साथ गहरी जान-पहचान डाल लेती हैं, उनके हृदय में गुण आ टिकते हैं और अवगुण उनके अंदर से दूर हो जाते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 436)।[x]  श्री गुरु ग्रंथ साहिब कहते हैं कि इन गुणों को सतगुरु के द्वारा ही जाना जा सकता है, शब्द के द्वारा ही सतगुरु का अतुलनीय शब्द (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 259) जाना जा सकता है।[xi]  सतगुरु द्वारा दिए गए गुणों में से एक किरपा अर्थात् अनुग्रह (नादिर) है और इसके परिणाम नीचे दिए गए हैं,

“अगर गुरु मिल जाए तो रब मिल जाता है, (संसार-समुंदर से मनुष्य) पार लांघ जाता है, (यहाँ से) तैर के बैकुंठ में जा पहुँचता है, (दुनिया में) रहते हुए (विकारों से उसका मन) मरा रहता है। अगर गुरु मिल जाए तो वह नाम जपने का स्वभाव पक्का कर देता है, (फिर मन) दसों दिशाओं में नहीं दौड़ता, पाँच कामादिक से बचा रहता है, (चिन्ता-फिक्र में) झुर-झुर के नहीं खपता। अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य के बोल मीठे हो जाते हैं, अकथ प्रभु की बातें करने लग जाता है, शरीर पवित्र हो रहता है, (क्योंकि फिर यह सदा) नाम जपता है। अगर गुरु ईश्वर मिल जाए तो मनुष्य को तीनों भवनों की सूझ हो जाती है (भाव, यह समझ आ जलाती है कि प्रभु तीनों भवनों में ही मौजूद है), ऊँची आत्मिक अवस्था से जान-पहचान हो जाती है, मन प्रभु-चरणों में टिका रहता है (हर जगह से) सदा शोभा मिलती है। अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य (दुनिया में रहता हुआ ही) सदा विरक्त रहता है, किसी की निंदा नहीं करता, अच्छे-बुरे सब से प्यार करता है। गुरु को मिल के ही माथे के अच्छे लेख उघड़ते हैं। अगर गुरु मिल जाए तो शरीर (विकारों में पड़ के) विनाश नहीं (भाव, मनुष्य विकारों में प्रवृक्त नहीं होता, और ना ही उसकी सत्ता व्यर्थ जाती है); ऊँची जाति आदि के माण वाले मनुष्य गुरु की शरण आए बँदे पर दबाव नहीं डाल सकते, जैसे कि वह देहुरा नामदेव की तरफ पलट गया था जिसमें से उसे धक्के दे के निकाल दिया गया था; गुरु की शरण पड़े गरीब की रक्षा के लिए रब खुद पहुँचता है जैसे कि नामदेव की कुल्ली बनी थी, ईश्वर स्वयं सहाई होता है जैसे कि बादशाह के डरावे देने पर पलंग दरिया में से निकलवा दिया। अगर गुरु मिल जाए तो अठारह तीर्थों का स्नान हो गया (जानो), शरीर पर चक्कर लग गए समझो (जैसे बैरागी द्वारिका जा के लगाते हैं). . . उस मनुष्य के लिए सारे जहर भी मीठे फल बन जाते हैं। अगर गुरु मिल जाए तो दिल के संसे मिट जाते हैं, जमों से (ही) खलासी हो जाती है, संसार-समुंदर से मनुष्य पार लांघ जाता है, जनम-मरन से बच जाता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 1166)।[xii]

संक्षेप में, उसके गुण इतने अधिक हैं कि कोई भी उसकी समझ को, अच्छे कर्मों (कामों) या दार्शनिक सोच से भरे हुए कार्यों द्वारा नहीं जान सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि एक साधक अयोग्य होता है और यहाँ तक ​​कि उसे कभी कभी पापी कह कर पुकारा जाता है और इसलिए वह उन्हें खोजने में असमर्थ होता है, फिर भी एक साधक को कहा जाता है कि वह अपने गुणों में से कम से कम एक की खोज तो अवश्य करे जो उस तक मुक्ति को ले आए ताकि वह दूसरे किनारे सत्य की सीमा (सच खंड) में दाखल हो जाए, गुरु से मैंने उस परमात्मा की सूझ-बूझ हासिल की है, जो कभी घटता-बढ़ता नहीं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 239)।[xiii]  वह सतगुरु या ईश्वर के शब्द से इस गुण को प्राप्त कर सकता है। यह हमें उन प्रश्नों के उत्तर पाने की ओर ले जाते हैं कि सत्य का एक साधक अच्छे कर्म करने पर भी इन गुणों को क्यों नहीं पा सकता है। एक साधक को उसके गुण (गुणों) की खोज करने की आवश्यकता क्यों है या सतगुरु या ईश्वर परमेश्वर का शब्द कहाँ है जो उसके जीवन में उत्पन्न अंधकार को दूर करने के लिए अपनी ज्योति को प्रकाशित कर सकता है? जीवन-संबंधी इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए, हमें ग्रंथ बाइबल की ओर मुड़ना होगा।

ग्रंथ बाइबल कहता है कि,

“इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्‍वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों 3:23)। इसलिए, “नि:सन्देह पृथ्वी पर कोई ऐसा धर्मी मनुष्य नहीं जो भलाई ही करे और जिस से पाप न हुआ हो”

सभोपदेशक 7:20

ग्रन्थ बाइबल में उल्लेखित साधक अपनी दयनीय अवस्था के बारे में स्पष्ट रीति से जानते थे, इसीलिए उनमें से एक सतगुरु यीशु मसीह से कुछ इस प्रकार कहता है कि, “हे प्रभु, मैं इस योग्य नहीं कि तू मेरी छत तले आए, परन्तु केवल मुख से कह दे तो मेरा सेवक चंगा हो जाएगा”

मत्ती 8: 8

क्योंकि वे जानता हूँ कि उनमें से कुछ अच्छा बाहर नहीं निकल सकता है,  क्योंकि मुझ (हमारे में अर्थात् मेरे (हमारे) शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती। इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते” (रोमियों 7:18)। इसलिए उनके द्वारा अच्छे कर्मों को करना, तीर्थ स्थानों में जाना, असंख्य कुण्डों में औपचारिक स्नान करना, लोगों द्वारा माने जाने वाले संतों के आर्शीवार्द को प्राप्त करना, फकीरों की कब्रों पर झुकना, और इसी तरह की अन्य कई गतिविधियाँ निरर्थक थीं। वे अपने मन में गहराई में जानते थे कि ये चीजें क्यों व्यर्थ हैं,

“हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं”

यशायाह 64: 6

इसीलिए उन्होंने बार-बार ऐसा कहा है कि,

“जूफा से मुझे शुद्ध कर, तो मैं पवित्र हो जाऊँगा; मुझे धो, और मैं हिम से भी अधिक श्‍वेत बनूँगा”

भजन 51: 7

साथ ही उन्होंने कुछ और भी कहा है,

“टूटा मन परमेश्‍वर के योग्य बलिदान है; हे परमेश्‍वर, तू टूटे और पिसे हुए मन को तुच्छ नहीं जानता”

भजन 51:17

अपनी अयोग्यता को जानते हुए, ग्रन्थ बाइबल में सर्वशक्तिमान ईश्वर (वाहेगुरु) के एक अन्य और साधक अर्थात् भक्त ने अपने मित्रों से बात करते हुए, कुछ ऐसा कहा है कि,

“क्या तू परमेश्‍वर का गूढ़ भेद पा सकता है? क्या तू सर्वशक्‍तिमान का मर्म पूरी रीति से जाँच सकता है?”

अय्यूब 11:7

साधकों ने अपने जीवन में महसूस किया कि कोई भी उन्हें तब तक नहीं समझ सकता, जब तक कि परमेश्वर स्वयं उन्हें प्रकट न करें, आहा! परमेश्‍वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं” (रोमियों 11:33)। अपनी चर्चा में, उन्होंने संक्षेप में कहा है कि, “क्या तू परमेश्‍वर का गूढ़ भेद पा सकता है? क्या तू सर्वशक्‍तिमान का मर्म पूरी रीति से जाँच सकता है? वह आकाश सा ऊँचा है—तू क्या कर सकता है? वह अधोलोक से गहिरा है—तू क्या समझ सकता है? उसकी माप पृथ्वी से भी लम्बी है और समुद्र से चौड़ी है” (अय्यूब 11:7-9)। परिणामस्वरूप वे पुकार उठे कि परमेश्वर स्वयं उन पर अपने रहस्य को प्रकट करे, मुझे अपना तेज दिखा दे” (निर्गमन 33:18), सतगुरु यीशु मसीह के एक अन्य भक्त के शब्दों पर विचार करें, “हे प्रभु, पिता को हमें दिखा दे, यही हमारे लिये बहुत है” (यूहन्ना 14:8)।

इसके अतिरिक्त वे ये भी जानते थे कि परमेश्वर उनकी समझ से परे अद्भुत काम को करता है, वह तो ऐसे बड़े काम करता है जिनकी थाह नहीं लगती, और इतने आश्‍चर्यकर्म करता है, जो गिने नहीं जाते” (अय्यूब 5:9), क्योंकि उसके पास उसके प्रिय लोगों के लिए गहरे विचार हैं, हे यहोवा, तेरे काम क्या ही बड़े हैं! तेरी कल्पनाएँ बहुत गम्भीर हैं” (भजन 92:5)। एक निश्चित सीमा तक, वे अपनी समझ में सही थे कि परमेश्वर स्वयं उन्हें बचा लेगा, परमेश्वर स्वयं उन्हें भव सागर से पार करा लेगा, परमेश्वर स्वयं मार्ग दिखा देगा। क्योंकि उनका मानना ​​था कि परमेश्वर स्वयं ही असाधारण काम करेगा क्योंकि वे अपने विचारों, सोच, कार्यों, तरीकों और जीवन से इसके लायक नहीं थे और परमेश्वर ने ऐसा ही किया,

“पूर्व युग में परमेश्‍वर ने बापदादों से थोड़ा थोड़ा करके और भाँति-भाँति से भविष्यद्वक्‍ताओं के द्वारा बातें कर, इन अन्तिम दिनों में हम से पुत्र के द्वारा बातें कीं, जिसे उसने सारी वस्तुओं का वारिस ठहराया और उसी के द्वारा उसने सारी सृष्‍टि की रचना की है। वह उसकी महिमा का प्रकाश और उसके तत्व की छाप है, और सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ्य के वचन से संभालता है। वह पापों को धोकर ऊँचे स्थानों पर महामहिमन् के दाहिने जा बैठा”

इब्रानियों 1:1-3

एक बार, सतगुरु यीशु मसीह ने अपने अनुयायियों से कुछ इस प्रकार बात की,

“मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता। यदि तुम ने मुझे जाना होता, तो मेरे पिता को भी जानते; और अब उसे जानते हो, और उसे देखा भी है”

यूहन्ना 14:6-7

एक अन्य समय पर उसने ऐसा कहा,

“हे धार्मिक पिता, संसार ने मुझे नहीं जाना, परन्तु मैं ने तुझे जाना; और इन्होंने भी जाना कि तू ही ने मुझे भेजा है। मैं ने तेरा नाम उनको बताया और बताता रहूँगा कि जो प्रेम तुझ को मुझ से था वह उनमें रहे, और मैं उनमें रहूँ”

यूहन्ना 17:25-26

यही कारण है कि क्यों सतगुरु यीशु मसीह लोगों (संगत) को परमेश्वर (वाहेगुरु) के बारे में बताने के लिए सक्षम थे क्योंकि वह अपने साथ ईश्वर के गुणों जैसे ज्योति, सत्य, अनुग्रह, दया, शांति, आनन्द, भालई और बहुत कुछ लेकर आए थे। शब्द (सतगुरु यीशु मसीह) देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्‍चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उसकी (सतगुरु यीशु मसीह) ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:14), जो अनुग्रह और सच्चाई की भरपूरी के साथ हमारे पास पिता की ओर से आया था।

यह अनुग्रह (नदिर, मेहर) जिसे हम पहले ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब में देख चुके हैं, सतगुरु यीशु मसीह के माध्यम से उन सभी के लिए उपलब्ध है जो उन्हें छुटकारा (जीवन-मुक्ता) पाने के लिए स्वीकार करते हैं।

“क्योंकि विश्‍वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्‍वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे”

इफिसियों 2:8-9

“जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे तो हमें मसीह के साथ जिलाया (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है”

इफिसियों 2: 5

 “हे मेरे प्रिय भाइयो, धोखा न खाओ। क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिसमें न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, और न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है”

याकूब 1:16-17

क्योंकि मुक्ति या छुटाकारा एक ईश्वरीय काम है, क्योंकि तू मेलबलि से प्रसन्न नहीं होता, नहीं तो मैं देता; होमबलि (साधक का कर्मकाण्डी जीवन) से भी तू प्रसन्न नहीं होता” (भजन 51:16), इसलिए बचाए जाने के लिए एक साधक के पास केवल एक ही संभव तरीका खुद को सतगुरु यीशु मसीह की बचाने वाली कृपा अर्थात् अनुग्रह पर विश्वास करना है, “परमेश्‍वर का कार्य यह है कि तुम उस पर, जिसे उसने भेजा है, विश्‍वास करो” (यूहन्ना 6:29)।

यदि एक साधक ऐसा नहीं करता है, तो मुक्ति के साथ-साथ वह उस परम आनन्द कोभी  खो देगा जो इस पृथ्वी पर रहते हुए अनन्त जीवन के आश्चर्य को ले आता है, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि यह आश्चर्य सतगुरु के पास रहता है, हे मेरे सतगुरु! मैं तेरे गुणों के बारे में क्या कह सकता हूँ? जब मैं गुरु बोलता हूँ, तो मैं आश्चर्य से भर जाता हूँ (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 167)।[xiv] ठीक यही कुछ यीशु मसीह के साथ भी हुआ था, लोग आश्चर्यचकित थे और उन्होंने पूछा, इसे बिन पढ़े विद्या कैसे आ गई? (यूहन्ना 7:15) और ऐसा ही उसके साथ रहने वालों के साथ हुआ। “जब उन्होंने पतरस और यूहन्ना का साहस देखा, और यह जाना कि ये अनपढ़ और साधारण मनुष्य हैं, तो आश्‍चर्य किया; फिर उनको पहचाना, कि ये यीशु के साथ रहे हैं” (प्रेरितों के काम 4:13)।

इसलिए, एक साधक के लिए सतगुरु यीशु मसीह के पास आना और उससे परम आनन्द के आश्चर्य को प्राप्त करना लाभदाई है,

“हे मेरे परमेश्‍वर यहोवा, तू ने बहुत से काम किए हैं! जो आश्‍चर्यकर्म और कल्पनाएँ तू हमारे ये करता है वह बहुत सी हैं; तेरे तुल्य कोई नहीं! मैं तो चाहता हूँ कि खोलकर उनकी चर्चा करूँ, परन्तु उनकी गिनती नहीं हो सकती”

भजन संहिता 40:5

[i] बेअंता बेअंत गुण तेरे केतक गावा राम ॥

[ii] मै जीतिओ जनमु अपारु बहुरि न हारीआ ॥६॥

[iii] जिन गुण तिन सद मनि वसै अउगुणवंतिआ दूरि ॥

[iv] जिउ तू चलाइहि तिव चलह सुआमी होरु किआ जाणा गुण तेरे ॥

[v] ऊच अपार बेअंत सुआमी कउणु जाणै गुण तेरे ॥

[vi] तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥

[vii] मुंध इआणी भोली निगुणीआ जीउ पिरु अगम अपारा ॥

[viii] सबदि अपारे मिले पिआरे सदा गुण सारे मनि वसे ॥

[ix]  सतिगुर सरणी जाइ पउ मेरी जिंदुड़ीए गुण दसे हरि प्रभ केरे राम ॥

[x] तउ गुण पछाणहि ता प्रभु जाणहि गुणह वसि अवगण नसै ॥

[xi] गुर पूरे कै सबदि अपारा ॥

[xii] जउ गुरदेउ त मिलै मुरारि ॥ जउ गुरदेउ त उतरै पारि ॥ जउ गुरदेउ त बैकुंठ तरै ॥ जउ गुरदेउ त जीवत मरै ॥१॥ जउ गुरदेउ त नामु द्रिड़ावै ॥ जउ गुरदेउ त अम्रित बानी ॥ जउ गुरदेउ त अम्रित देह ॥ जउ गुरदेउ त सीसु अकासि ॥ जउ गुरदेउ त छापरि छाई ॥ जउ गुरदेउ त अठसठि नाइआ ॥ जउ गुरदेउ तनि चक्र लगाइआ ॥ जउ गुरदेउ त दुआदस सेवा ॥ जउ गुरदेउ सभै बिखु मेवा ॥७॥ जउ गुरदेउ त संसा टूटै ॥ जउ गुरदेउ त जम ते छूटै ॥ जउ गुरदेउ त भउजल तरै ॥ जउ गुरदेउ त जनमि न मरै ॥८॥

[xiii] जिसु गुर ते अकल गति जाणी

[xiv] तुमरे गुण किआ कहा मेरे सतिगुरा जब गुरु बोलह तब बिसमु होइ जाइ ॥

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