13.अमृत – प्रभु का शब्द मीठा है

संस्कृत शब्द अमृत का शाब्दिक अर्थ “कोई मृत्यु नहीं”, “मृत्यु के बिना” या “अमर” होने से है। इसे भारत के प्राचीन धार्मिक साहित्य में अक्सर शब्द अमृत के रूप में जाना जाता है। यह युनानी शब्द एम्ब्रोसिया  से उत्पन्न होता है, जहाँ से हमें इसका हिन्दी शब्द जीवन जल मिलता है, जिसे अक्सर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में आए शब्द अमृत के साथ प्रयोग किया जाता है। यह शब्द सिख धर्म के कई अन्य धर्म सिद्धान्तों के साथ जुड़ा हुआ है, जैसे कि नाम अमृत (ਨਾਮੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ), अमृत और कुछ नहीं अपितु मीठे शब्द पर चिन्तन करना है (ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਮੀਠਾ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰਿ), अमृत ईश्वरीय ज्ञान है (ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਗਿਆਨੁ), अमृत ईश्वरीय गुणों का खजाना है (ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ), अमृत शब्द है (ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸਬਦੁ) है, और ऐसी ही और बातें इससे संबंधित है। सिखों धर्म के गुरुओं (ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੁ) की सोच में, अमृत का एक महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह अमृत है जो एक न हिलने वाले आत्मिक जीवन को ला सकता है। दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति कभी भी मृत्यु का सामना नहीं करेगा यदि उसने अमृत को पा लिया है।

जीवन जल वाले अमृत का काम आत्मिक या भक्तिपूर्ण जीवन को लाना है, स्वयं और स्व-अवस्था के बारे में जागरूकता लाने का है, वास्तविकता के बारे में जागरूकता लाने का है, सर्वशक्तिमान (अकाल पुरख) में बने रहने के बारे में जागरूकता लाने का है। यही आगे चलकर सत्य के एक साधक के जीवन में मुक्ति के बोध (जीवनमुक्ता या गुरुमुखपन) की अवस्था को लाता है। गुरु ग्रंथ के अनुसार जीवन जल वाले अमृत की खोज करने का सबसे अच्छा समय सुबह के समय होता है, प्रभात के समय, सुबह होने से पहले, सच्चे नाम का जाप करते हैं, और उसकी महानता का चिंतन करते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 2)।[i] सर्वशक्तिमान, जिसे कोई भी मनुष्य की सीमित बुद्धि से नहीं समझ सकता है, की महिमा और महानता पर चिंतन करना, एक भक्त के मन को शुद्ध करने में मदद करता है, जो गन्दगी से भरा हुआ है, मन के भीतर गहरे अहंकार वाला रोग है; अपने मन के अनुसार चलने वाले व्यक्ति मनमुख, बुरे प्राणे, संदेह से बहक जाते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 301)।[ii]

सत्य के एक सच्चे साधक का मन या चेतना (सूरत) ठीक हो जाती है और यह शुद्ध (खाल्लस) हो जाता है या दूसरे शब्दों में कहें तो उसके मन ने अब प्रभु के अनुग्रह (नदर) के सागर में स्नान (अमृतधारा) कर लिया है। इसके बाद उसे एक मुक्ति देने वाले तीर्थस्थान पर स्नान के लिए जाने की आवश्यकता नहीं है, जो आत्मिक ज्ञान के अमृत जल में स्नान करता है, वह अड़सठ पवित्र तीर्थों का स्नान कर लेता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 1328),[iii] वह निरन्तर इस जीवन के जल को पीता चला जाता है,अमृत की धारा धीरे-धीरे बरसती है, मनुष्य का मन गुरु का शब्द सुन के उस अमृत धारा को पीता चला जाता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 102)।[iv] अमृत पान करना या मन का चिंतन ‘शब्द’ के ऊपर होता है, जो स्वयं गुरु है, अमृत – मीठा शब्द है, अमृत – प्रभु का शब्द है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 119)।[v]

क्यों?

क्योंकि, शब्द के ऊपर चिन्तन से भरा हुआ मनन मीठा अमृत है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 424)[vi] और यह हमेशा गुरु -प्रसाद द्वारा ही दिया जाता है, जीवनदाई नाम का अमृत हमेशा मेरे लिए मीठा है; गुरु के शब्द के माध्यम से, मैं इसका स्वाद चखने आया हूँ” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 559)।[vii] सतगुरु के पास न केवल अमृत है, बल्कि वह स्वयं एक भक्त के हृदय में अपने नाम – अमृत को रखते हैं, वह स्वयं अमृत है, सतगुरु सारे जीवन को सफल कर देता है। वह आत्मिक जीवन देने वाले नाम को हृदय में बसा देता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 1184)।[viii] इसलिए, मानव जाति को इस अमृत के पास आने और इसे पीने के लिए कहा गया है, गुरु का शब्द अमृत है जिसे पीने से प्यास बुझ जाती है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 35)।[ix]

हमारी चर्चा को संक्षेप में हम कुछ ऐसे कह सकते हैं, अमृत सतगुरु का है, वास्तव में सतगुरु स्वयं ही अमृत हैं। एक भक्त को इस अमृत की प्राप्ति के लिए उसके निकट आना होगा। अमृत ​​में न केवल मन को साफ करने की, गंदगी से शुद्ध करने की, बल्कि इसे चंगा करने की भी शक्ति है। इस कारण, यह परमेश्वर की महिमा और आश्चर्यों के ऊपर चिंतन कर सकता है। अमृत, ​साथ ही सत्य के एक साधक को उसकी सांसारिक और आत्मिक स्थिति को भी देखने में मदद करता है और फिर उसे सतगुरु के शब्दों (बाणी अर्थात् वचन) पर मनन करने में सक्षम बनाता है जो कि परम आनन्द अर्थात् स्वर्गीय आनंद है। हालाँकि, यह हमें कुछ महत्वपूर्ण सवालों के जवाब खोजने के लिए प्रेरित करता है, जो हमारे जीवन की नियति को बदल सकते हैं। परमेश्वर का शब्द कौन है? जीवनदाई ​​अमृत किसे कहते हैं? सतगुरु का अमृत कहाँ मिलेगा? जीवन देने वाले अमृत को खोजने के लिए क्या करना होगा? जो परम आनन्द को लाता है और अंत में मुक्ति प्रदान करता है?

यदि सत्य का एक साधक अपनी सांसारिक और आत्मिक स्थिति के बारे में गंभीर है तो उसे ग्रन्थ बाइबल में उत्तर की खोज करनी चाहिए क्योंकि ग्रन्थ बाइबल ही इस संसार में एकमात्र ऐसा शास्त्र है जो बिना किसी अस्पष्टता के इन प्रश्नों के उत्तर देता है। अतीत में हजारों लोगों ने इससे उत्तरों को पाया है और अपने जीवन और गंतव्य को बदला है। ऐसे ही एक शिष्य (सिख) ने उत्तर पाने के बाद कुछ इस तरह से कहा, हे प्रभु, हम किसके पास जाएँ? अनन्त जीवन की बातें तो तेरे ही पास हैं” (यूहन्ना 6:68)। ग्रन्थ बाइबल स्पष्ट रूप से कहता है कि,

 “आदि में शब्द [सतगुरु यीशु मसीह] था, और शब्द [सतगुरु यीशु मसीह] परमेश्‍वर के साथ था, और शब्द [सतगुरु यीशु मसीह] परमेश्‍वर था। यही [सतगुरु यीशु मसीह] आदि में परमेश्‍वर के साथ था। सब कुछ उसी [सतगुरु यीशु मसीह] के द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ उत्पन्न हुआ है उसमें से कोई भी वस्तु उस [सतगुरु यीशु मसीह] के बिना उत्पन्न नहीं हुई”

यूहन्ना 1:1-3

सतगुरु यीशु मसीह ने इसे इस तरह से कहा है कि,

 “इसलिये जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है, वह उस बुद्धिमान मनुष्य के समान ठहरेगा जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया”

मत्ती 7:24

यहाँ घर सत्य के एक साधक के जीवन को दर्शाता है जो जीवन में तूफानों के आने पर डरता नहीं है क्योंकि वह तो पहले से ही शांति (चैन) और आनंद (परम-आनंद) को प्राप्त कर चुका है। वह पहले से ही स्थिरता और अचलता की अवस्था में है। कोई भी अब उसके विकास में बाधा नहीं डाल सकता है, क्योंकि उसकी जड़ें अमृत के सोते में मिलती हैं। इसीलिए सतगुरु यीशु मसीह के एक शिष्य (सिख) ने जीवनदाई इस अमृत धारा में डुबकी लेने के बाद मन की अवस्था के बारे में कुछ ऐसे लिखा है,

“तब परमेश्‍वर की शान्ति, जो सारी समझ से परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी

फिलिप्पियों 4:7

जब एक बार सतगुरु यीशु मसीह परमेश्वर के बारे में चर्चा (ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੁ) कर रहे थे, तो उन्होंने कुछ ऐसे कहा,

“यदि कोई प्यासा हो तो मेरे पास आए और पीए। जो मुझ पर विश्‍वास करेगा, जैसा पवित्रशास्त्र में आया है, ‘उसके हृदय में से जीवन के जल की नदियाँ (जीवनदाई अमृत) बह निकलेंगी'”

यूहन्ना 7: 37-38

उन्होंने सत्य के प्रत्येक साधक को, जिसका मन निराशा है, जिसका मन टूटा हुआ है, जो अकेला छोड़ दिए जाने को महसूस करता है, जो सोचता है कि उसे त्याग दिया गया है या कोई उसकी परवाह नहीं करता है। वह उन्हें अपने पास रहने के लिए बुलाता है या अपनी नदी में बहने वाले अमृत में से पीने के लिए कहता है। एक भक्त को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वह एक भारी बोझ के साथ उसके पास आ रहा या रही है और यह बोझ संसार और सांसारिक इच्छा का है, जो उसे सता रहा है, “जो जो जीव (जगत में) दिखाई दे रहा है, हरेक किसी ना किसी रोग में फंसा हुआ है  (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 1140)।[x] लेकिन ये अवस्था तब पलट जाती है जब सत्य का एक साधक सतगुरु यीशु मसीह के पास आ जाता है क्योंकि सतगुरु यीशु मसीह ने ऐसे कहा है कि,

“मैं तुम्हें शान्ति दिए जाता हूँ, अपनी शान्ति तुम्हें देता हूँ; जैसे संसार देता है, मैं तुम्हें नहीं देता: तुम्हारा मन व्याकुल न हो और न डरे” (यूहन्ना 14:27), उन्होंने आगे कहा, “मैं ने ये बातें तुम से इसलिये कहीं हैं कि तुम्हें मुझ में शान्ति मिले। संसार में तुम्हें क्लेश होता है, परन्तु ढाढ़स बाँधो, मैं ने संसार को जीत लिया है।”

यूहन्ना 16:33

इसलिए, जिस क्षण सत्य का एक साधक सतगुरु यीशु मसीह की जीवनदाई अमृत की नदी में डुबकी लगाता है, उसी क्षण उसका मन परम आनन्द या दूसरे शब्दों में स्वर्गीय खुशी और शांति (सचखंड-दा-आनन्द) से भर जाता है, इस कारण मेरा हृदय आनन्दित और मेरी आत्मा मगन हुई; मेरा शरीर भी चैन से रहेगा” (भजन 16:9)। वह खुशी के मारे चिल्ला उठाता है, यहोवा (अकाल पुरख) का आनन्द. . . दृढ़ गढ़ है” (नहेमायाह 8:9-10)। एक भक्त का पूरा व्यक्तित्व बदल जाता है और वह नया हो जाता है, इसलिये यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्‍टि है : पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, सब बातें नई हो गई हैं”  (2 कुरिन्थियों 5:17)। वह अब इस धरती से संबंधित नहीं रहता है (यूहन्ना 15:19; फिलिप्पियों 3:20)। वास्तव में वह परम आनन्द (सहज-भाव) या मुक्ति (जीवन-मुक्ति) के सबसे ऊँचे शिखर को छू लेता है क्योंकि वह ‘परमेश्वर में बना रहता है’ (यूहन्ना 15:4)। वह एक स्व-की इच्छा पर चलने वाले व्यक्ति (मनमुख) से उस व्यक्ति में बदल दिया जाता है जो ‘गुरु के व्यक्तित्व’ से निकल कर आता है या ऐसे व्यक्ति में जिसके पास गुरु (गुरुमुख) का चरित्र या व्यक्तित्व होता है।

इस प्रकार, सतगुरु यीशु मसीह के बुलावे की अवज्ञा करना स्वयं को मूर्ख बनाना हैं क्योंकि,

“हे नानक आत्मिक जीवन देने वाला नाम अमृत सदा आनन्द देने वाला होता है। नाम अमृत पीने से सारी भूख उतर जाती है” ,[xi]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 119

और केवल सतगुरु यीशु मसीह ही शांति और आनंद को ला सकते हैं, “सच्चा गुरु अमृत का कुण्ड है; इसमें स्नान करने से मन सारी मैल साफ हो जाती है”[xii]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 113

[i] अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥

[ii] मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥

[iii] अम्रितु नीरु गिआनि मन मजनु अठसठि तीरथ संगि गहे ॥

[iv] झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा ॥ मनु पीवै सुनि सबदु बीचारा ॥

[v] अम्रित सबदु अम्रित हरि बाणी ॥

[vi] अम्रितु मीठा सबदु वीचारि ॥

[vii] अम्रित नामु सद मीठा लागा गुर सबदी सादु आइआ ॥

[viii] गुरि पूरै सभु पूरा कीआ ॥ अम्रित नामु रिद महि दीआ ॥१॥ रहाउ॥

[ix] गुर का सबदु अम्रितु है जितु पीतै तिख जाइ ॥

[x] जो जो दीसै सो सो रोगी ॥

[xi] नानक अम्रित नामु सदा सुखदाता पी अम्रितु सभ भुख लहि जावणिआ ॥

[xii] सतिगुरु है अम्रित सरु साचा मनु नावै मैलु चुकावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

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