सुनना न केवल एक कला है, बल्कि परमेश्वर की ओर से एक उपहार भी है। सुनना को दूसरे शब्दों में भी कहा जा सकता है, जिसे ध्याने देना कहा जाता है, अर्थात् जैसे कि कोई किसी के शब्दों को सुन रहा है। लोग विभिन्न स्तरों पर दूसरों पर ध्यान देते हैं। कुछ तर्क के साथ सुनते हैं, कुछ आलोचनात्मक रवैये के साथ, कुछ प्रशंसात्मक तरीके से सुनते हैं, लेकिन कुछ शब्दों को स्वीकार कर लेने के साथ, फिर भी यह कहना अधिक उचित होगा है कि कुछ लोग स्नेहपूर्ण व्यवहार के साथ सुनते हैं। ऑक्सफोर्ड लिविंग शब्दकोष स्पष्ट रूप से शब्द सुनने की परिभाषित ऐसे करता है कि ‘सुनने का अर्थ ध्वनि या कार्रवाई पर ध्यान देने से है।’[i] इसलिए, सुनना और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह एक श्रोता के व्यक्तित्व को ही बदल देता है। हिन्दू धर्म के मूल शास्त्र के बारे में यह कल्पना की गई है कि वेद के शब्दों को ऋषियों (मुनियों) द्वारा सीधे सुना गया था। शब्द वेद का अर्थ ही “क्या सुना गया” (श्रुति) से है।
सुनने या सुनने के महत्व को ध्यान में रखते हुए, श्री गुरु ग्रंथ साहिब एक भक्त को सुनने और ध्यान देने के लिए आमंत्रित करता है। यह ध्यान रखना अत्याधिक महत्वपूर्ण है कि गुरु ग्रंथ गुरु के शब्दों (बानी) पर ध्यान देने पर बहुत ज्यादा जोर देता है। इसका कारण यह है कि शब्द को ही गुरु के रूप में दर्शाया गया है, “शब्द, बानी गुरु है, और गुरु ही बानी है। बानी में आत्मिक जीवन देने वाला अर्थात् अमृत निहित है” (गुरु ग्रंथ, पृ.982)।[ii] उसके शब्दों में ही आत्मिक जीवन जल अर्थात् अमृत है, इसलिए, गुरु ग्रंथ एक भक्त को गुरु के शब्दों पर ध्यान देने के लिए बुलाहट इस रीति से देता है कि जो कुछ भी कहा जा रहा है उसे स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए। इसका नतीजा यह होता है कि एक भक्त की चेतना (सुरत) या मन (सोच) जाग जाती है और वह एक सिद्ध पुरुष (साब्त) बन जाता है या दूसरे शब्दों में एक मुक्ति पाया हुआ व्यक्ति (जीव मुक्ता) बन जाता है।
चूँकि अब एक सत्य के साधक ने गुरु के ईश्वरीय शब्द को सुन लिया है, जो (मूल पुरुष, आदि पुरुष, सत् पुरुष, पूर्ण पुरुष) परमेश्वर की ओर से यहाँ नीचे आया है, इसलिए वह एक मुक्त व्यक्ति (जीव मुक्ता), एक ऋषि (सिद्ध), एक आत्मिक मार्गदर्शक (पीर), एक शिक्षक (नाथ) और एक देवता (सूर) से संबंधित नए गुणों को प्राप्त करता है (गुरु ग्रंथ, पृ.2).[iii] क्योंकि यही वह स्थान है, जहाँ सुनने में मुक्ति भी छिपी हुई है, “यदि उसका विनम्र सेवक विश्वास करता है, और गुरु के शब्दों के शब्दों के अनुसार कार्य करता है, तब अपने शरीर में गुरु, उसे मुक्ति प्रदान करता है” (गुरु ग्रंथ, पृ.982)।[iv] इस प्रकार, गुरु के शब्दों को सुनकर, सत्य का एक साधक जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार-चक्र) से बाहर निकल जाता है। उसका भीतर व्यक्ति नए जीवन के साथ खिल उठता है। वह अपने पापों से मुक्त हो जाता है। सुनने से, सत्य के एक साधक को देवताओं के वाली अवस्था प्राप्त होती है (जीव मुक्ता)।
आगे गुरु ग्रंथ में ऐसे कहा गया है कि यदि सत्य का एक साधक गुरु के वचनों को ध्यान से सुनता है, तो उसे पूजा अर्चना करने और अपने उद्धार के लिए अनुष्ठानों पर आधारित स्नानों को करने के लिए तीर्थ यात्रा पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सुनने ने गुरुओं के विचारों में बड़ी मात्रा में स्थान को पाया है। यह किसी भी धार्मिक अनुष्ठान संहिता और रीति रिवाज जैसे स्नान, पूजा अर्चना और इस तरह के आचरण में पहली प्राथमिकता पर आता है। इसके अलावा, गुरु (बानी) के शब्दों में एक व्यक्ति के जीवन को बदलने की शक्ति होती है जिससे सत्य का एक साधक ज्ञान से परिपूर्ण, सत्यवादी हो जाता है। “सत्य, संतोष और आध्यात्मिक ज्ञान को सुनना। सुनने से अड़सठ तरह की तीर्थ यात्राओं से होने वाला स्नान प्राप्त हो जाता है” (गुरु ग्रंथ, पृ.3)।[v] इस तरह से सुनने को एक ऐसा मार्ग माना जाता है, जो सत्य के एक साधक को मोक्ष और आनंद की राह पर ले जाता है, “सुनने से एक व्यक्ति सहजता से ध्यान में लग जाता है। हे नानक, भक्त हमेशा के लिए आनंद में रहता है” (गुरु ग्रंथ, पृ. 3)।[vi]
इसके अतिरिक्त, यदि सत्य के एक साधक को मन की शांति की आवश्यकता है, तो उसे सुनने के मार्ग पर चलता हुआ होना आवश्यक है, शान्ति सुनने में आती है, सुनना ही एक सत्य साधक के मन में शांति को लाता है। सुनने की परिणति मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति में होती है। “नाम को सुनकर, मन प्रसन्न होता है… यह शांति और शांतचित्तता को लाता है। सुनने… से मन संतुष्ट होता है, और सारे दर्द दूर हो जाते हैं। सुनने… से एक व्यक्ति प्रसिद्ध हो जाता है … यह भव्य महानता को लाता है … सारे तरह के आदर और प्रतिष्ठा को ले आता है … इससे उद्धार प्राप्त होता है” (गुरु ग्रंथ, पृ.1240)।[vii] इसलिए, गुरु के शब्द (बानी) न केवल पापों को बल्कि बुरे कर्मों को भी दूर करते हैं, “गुरु का शब्द अतीत के लाखों कर्मों को मिटा देता है” (गुरु ग्रंथ, पृ.1195)।[viii]
सत्य के एक साधक को ध्यान देना चाहिए कि गुरु के शब्द (बानी) उसके मन में स्पष्ट समझ को लाते हैं, “कबीर कहते हैं, मैंने पाया है कि गुरु, जिसका नाम स्पष्ट समझ है” (गुरु ग्रंथ, पृ.793)[ix] क्योंकि, मुक्ति के लिए हमेशा उस स्पष्ट समझ में सुनाई देती है, जिसे सुना जाता है “लेकिन मुक्ति बिना समझ के सीखने से नहीं आती” (गुरु ग्रंथ, पृ.903)।[x] हाँ, यह सच है कि गुरु (बानी) के शब्दों को समझना अधिकांश समझ से परे की बात होती है, इसमें अगम्य सर्वव्यापी परमेश्वर (अकाल पुरख) की महिमा, भव्यता और प्रताप शामिल है, फिर भी स्पष्ट रूप से समझने के लिए, एक व्यक्ति के ऊपर उन शब्दों का प्रकाश पड़ना आवश्यक है, “शब्द उसका गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक, अगम्य और अथाह है; शब्द के बिना, संसार पागल है” (गुरु ग्रंथ, पृ.635)।[xi]
इस बात की इच्छा की गई है कि सत्य के एक साधक को ऐसे गुरु को ढूंढना चाहिए जिसके माध्यम से न केवल पाप दूर हो जाते हैं, बल्कि एक व्यक्ति को पुन: जन्म (भाव-सागर) के चक्र में वापस आने की आवश्यकता नहीं पड़ती है,
“ऐसा गुरु धारण करो कि दूसरी बार गुरु धारण करने की जरूरत ना रहे; उस ठिकाने का आनंद लो कि किसी और स्वाद को भोगने की चाह ही ना रहे; ऐसी तवज्जो जोड़ो कि फिर (और कहीं और) जोड़ने की जरूरत ही ना रहे; इस तरह मरो कि फिर मरना ना पड़े” (),[xii]
गुरु ग्रंथ, पृ.327
क्योंकि गुरु ही केवल एक साधक को पुर्न जन्म के पहिए (भव-चक्र) के गर्भ से मुक्त कर सकता है, इसलिए गुरु के शब्दों में बने रहना से ही एक व्यक्ति अपनी मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति की ओर आगे बढ़ता, “ईश्वर का एक शब्द मेरे मन में बसता है। मैं दोबारा जन्म लेने नहीं आऊंगा” (गुरु ग्रंथ, पृ.795)।[xiii]
चूंकि, सुनने अर्थात् श्रवण को विभिन्न धर्मों में इतनी अधिक महत्वपूर्ण जगह मिली है कि वेद और कुरान जैसे शास्त्र भी सुनने के द्वारा ही लिए लिखे गए थे। इसके अलावा, श्री गुरु ग्रंथ साहिब ने भी गुरु (बानी) के शब्दों को सुनने के लिए केन्द्रीय स्थान दिया है। इसलिए, यह हमें जीवन और मुक्ति (उद्धार) से संबंधित कुछ लेकिन महत्वपूर्ण सवालों के जवाब पाने के लिए उकसाता है। वह गुरु कहाँ हैं, जो पापों को दूर करने और सत्य के एक साधक को आवा-गमन की चंगुल से बचने में मदद करता है, क्या उसके शब्दों (बानी) को सुनना मिल सकता है। सत्य के एक साधक को ऐसे गुरु को खोजने के लिए कहाँ जाना होगा, जिसके शब्दों को सुनने से एक भक्त को शांति और स्वर्गीय आनंद (परम आनंद) प्राप्ति का लाभ हो सकता सकता है? मोक्ष या उद्धार प्राप्त करने के लिए सुनने का मार्ग सुझाया गया है, लेकिन इसे कैसे सुन जाए कि एक भक्त का जीवन बदल जाए, यह एक रहस्य ही बना हुआ है। ऐसा गुरु कहाँ हो सकता है, जिसके शब्द भक्त के मन में बस जाए, उसे कहाँ पाया जा सकता है? एक ऋषि (सिद्ध), एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक (पीर), एक शिक्षक (नाथ) और एक देवता (सूर) बनने के लिए क्या करना चाहिए? इन प्रचलित प्रश्नों के उत्तर ग्रन्थ बाइबल में दिए गए हैं।
ग्रन्थ बाइबल कहता है कि सतगुरु यीशु मसीह परमेश्वर का शब्द है, “आदि में शब्द था, और शब्द परमेश्वर के साथ था, और शब्द परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ उत्पन्न हुआ है उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई” (यूहन्ना 1:1-3)। यह शब्द सत्य के एक साधक को बचाने के लिए पृथ्वी पर आया था,
“जिसने परमेश्वर के स्वरूप में होकर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। वरन् अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया”
फिलिप्पियों 2:5-7
। सतगुरु यीशु मसीह “वह उसकी महिमा का प्रकाश और उसके तत्व की छाप है, और सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ्य के वचन से संभालता है” (इब्रानियों 1:3)। उसके पास अपने शब्दों (बानी) द्वारा सब कुछ को संभाले रखने की शक्ति है, जिसमें एक भक्त की मुक्ति भी शामिल है।
ऐसे बहुत से समय आए हैं, जब सतगुरु यीशु मसीह ने लोगों से उनके शब्दों (बानी) को सुनने के लिए कहा, “जो परमेश्वर से होता है, वह परमेश्वर की बातें सुनता है” (यूहन्ना 8:47), “चौकस रहो कि क्या सुनते हो” (मरकुस 4:24) ), “जिसके पास सुनने के लिये कान हों, वह सुन ले” (मरकुस 4:9)। सतगुरु यीशु मसीह ने कहा कि एक भक्त या सत्य का एक साधक एक धन्य व्यक्ति है, यदि वह उसके शब्दों को सुनता है, “परन्तु धन्य वे हैं जो परमेश्वर का वचन सुनते और मानते हैं” (लूका 11:28)। उसकी शिक्षाओं में से एक में, उसने अपने परिवार के सदस्यों के बारे में कुछ इस तरह से कहा, “मेरी माता और मेरे भाई ये ही हैं, जो परमेश्वर का वचन सुनते और मानते हैं।” (लूका 8:21)। एक बार, अपनी शिक्षा (ब्रह्म ज्ञान) देते समय, उसने कुछ इस तरह से कहा,
“इसलिये जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है, वह उस बुद्धिमान मनुष्य के समान ठहरेगा जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया”
मत्ती 7:24
सच्चाई तो यह है कि, सतगुरु यीशु मसीह ने कहा,
“मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं; और मैं उन्हें अनन्त जीवन देता हूँ। वे कभी नष्ट न होंगी, और कोई उन्हें मेरे हाथ से छीन न लेगा”
यूहन्ना 10:27-28
। इसमें यदि और अधिक को जोड़ने दें तो, वह मुक्ति प्रदान करने के लिए अपने शब्दों को सुनने के लिए हर एक को आवाज लगाता, “देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ” (प्रकाशितवाक्य 3:20)। सतगुरु यीशु मसीह अपने बोले गए शब्दों के महत्व को जानते थे इसलिए उन्होंने कहा, “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा” (मत्ती 4: 4)।
ऊपर लिखी हुई बातों के प्रकाश में, उसके वचन आग के समान हैं, जो हमारे बुरे कर्मों को भस्म कर सकते हैं। वे कठोर पथरीले हृदय को भी तोड़ सकते हैं, “क्या मेरा वचन आग सा नहीं है? फिर क्या वह ऐसा हथौड़ा नहीं जो पत्थर को फोड़ डाले?” (यिर्मयाह 23:28-29)। उनके शब्दों की शक्ति इतनी अधिक मजबूत है कि यह कुछ के होने का कारण बनती है, “जब वह बोलता है तब आकाश में जल का बड़ा शब्द होता है, वह पृथ्वी की छोर से कुहरा उठाता है। वह वर्षा के लिये बिजली बनाता, और अपने भण्डार में से पवन निकाल ले आता है” (यिर्मयाह 51:16)। यदि वास्तव में उसके शब्दों (बानी) में इतनी अधिक शक्ति है कि यह कभी भी विफल नहीं होंगे,
“जिस प्रकार से वर्षा और हिम आकाश से गिरते हैं और वहाँ यों ही लौट नहीं जाते, वरन् भूमि पर पड़कर उपज उपजाते हैं जिस से बोनेवाले को बीज और खानेवाले को रोटी मिलती है, उसी प्रकार से मेरा वचन (बानी) भी होगा जो मेरे मुख से निकलता है; वह व्यर्थ ठहरकर मेरे पास न लौटेगा, परन्तु जो मेरी इच्छा (जीवन आनन्द) है उसे वह पूरा करेगा, और जिस काम के लिये मैं ने उसको भेजा है उसे वह सफल करेगा”
यशायाह 55:10-11
इस प्रकार, सतगुरु यीशु मसीह के शब्दों को सुनने के लिए मुक्ति (पार उतारा) का मार्ग सुझाया गया है। लेकिन भक्त के जीवन में यह आनन्द (परम आनन्द) को कैसे खिल सकता है? इसका उत्तर ग्रन्थ बाइबल द्वारा इस तरह दिया गया है, “इसलिए विश्वास सुनने से आता है, और सुनना मसीह के वचन (बानी) से होता है” (रोमियों 10:17)। यह विश्वास है जो एक भक्त के आंतरिक जीवन में नया जीवन लाता है, “विश्वास ही से हम जान जाते हैं कि सारी सृष्टि की रचना परमेश्वर के वचन के द्वारा हुई है” (इब्रानियों 11:3)। इसमें सत्य का लोक (सच-खंड) भी शामिल है। अतीत में ऐसे संतों ने, जिन्होंने सतगुरु यीशु मसीह का अनुसरण किया है, उनके शब्दों के महत्व को जानते थे, “हर एक प्राणी घास के समान है, और उसकी सारी शोभा घास के फूल के समान है। घास सूख जाती है, और फूल झड़ जाता है, परन्तु प्रभु का वचन युगानुयुग स्थिर रहता है” (1 पतरस 1:24-25)। उन्होंने उसके शब्द से इतना अधिक आनन्द प्राप्त किया कि उन्होंने उसके शब्दों को अपने दिल में इकट्ठा कर लिया, “मैं ने तेरे वचन को अपने हृदय में रख छोड़ा है, कि तेरे विरुद्ध पाप न करूँ” (भजन 119:11), क्योंकि वे जानते थे कि, “मैं कान लगाए रहूँगा कि परमेश्वर यहोवा क्या कहता है, वह तो अपनी प्रजा से जो उसके भक्त हैं, शान्ति की बातें कहेगा” (भजन 85:8)।
जैसा कि हमने ऊपर देखा, चूंकि, वह स्वयं परमेश्वर का प्रस्तुतिकरण है, इसलिए उसके शब्दों में जीवन देने की शक्ति है, “क्योंकि परमेश्वर का वह अनुग्रह (नदर) प्रगट है, जो सब मनुष्यों के उद्धार (मोख द्वार) का कारण है” (तीतुस 2:1 1)। इसलिए ग्रन्थ बाइबल में यह आज्ञा दी गई है कि, “मसीह के वचन को अपने (भक्त) हृदय में अधिकाई से बसने दो” (कुलुस्सियों 3:16) ताकि शांतचित्तता (टिकाऊ), शांति (चैन) और आनन्द (परम आनंद) के बारे में स्पष्ट समझ एक भक्त के जगह ले सके, “क्योंकि परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है; और प्राण और आत्मा को, और गाँठ-गाँठ और गूदे-गूदे को अलग करके आर-पार छेदता है और मन की भावनाओं और विचारों को जाँचता है” (इब्रानियों 4:12)। लेकिन कुछ लोगों के लिए ये बातें फिर भी कोई मूल्य नहीं रखती हैं, “जो शिक्षा पर चलता वह जीवन के मार्ग पर है, परन्तु जो डाँट से मुँह मोड़ता, वह भटकता है” (नीतिवचन 10:17)।
संक्षेप में हम इसे कुछ इस तरह से कह सकते हैं: तो सबसे पहले, एक व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि सतगुरु यीशु मसीह शब्द है और यह शब्द “मूल प्राणी” है, जो इस पृथ्वी पर आया। दूसरा, सतगुरु यीशु मसीह के रूप में शब्द दृश्यमान रूप में अदृश्य परमेश्वर का सटीक प्रस्तुतिकरण है। तीसरा, यह शब्द, जिसे अब हम सतगुरु यीशु मसीह के नाम से जानते हैं, सभी को अपने शब्दों को सुनने के लिए कहता है, क्योंकि इससे एक सच्चा साधक जीवन और आनन्द को पाता है। चौथा, अतीत और वर्तमान में संतों ने उसके शब्दों (बानी) को अपने मन में संजो कर रखा क्योंकि वे जानते हैं कि उन्हें इससे अपने बुरे कर्म करने से रोकने की शक्ति मिलती है। पाँचवाँ, विश्वास या भरोसा वह मार्ग है, जिस पर एक भक्त को तब चलता है, जब वह सतगुरु यीशु मसीह के शब्दों को सुनता है, विश्वास सुनने से आता है, और इसके लिए सतगुरु यीशु मसीह के शब्द को सुन जाता है।
इस प्रकार, जो कुछ भी गुरु ग्रन्थ सुनने के बारे में बोल रहा है, वह यहाँ बिना किसी अस्पष्टता के स्पष्ट हो जाता है, “सुनने… से हृदय में प्रकाश हो जाता, और अंधकार दूर हो जाता है . . . सुनने… से पाप मिट जाते हैं, और साधक निष्कलंक सच्चे परमेश्वर से मिलता है” (गुरु ग्रंथ, पृ. 1240)।[xiv] सब कुछ को एक ही वाक्य में ऐसे कहा जा सकता है कि एक साधक से आग्रह किया जाता है कि वह सतगुरु यीशु मसीह के शब्दों पर ध्यान दें, “बुद्धिमान सुनकर अपनी विद्या बढ़ाए, और समझदार बुद्धि का उपदेश पाए” (नीतिवचन 1: 5)।
[i] https://www.lexico.com/definition/listen
[ii] बाणी गुरू गुरू है बाणी विचि बाणी अम्रितु सारे ॥
[iii] सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥ सुणिऐ धरति धवल आकास ॥
[iv] गुरु बाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरू निसतारे ॥५॥
[v] सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ॥ सुणिऐ अठसठि का इसनानु ॥
[vi] सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥
[vii] नाइ सुणिऐ मनु रहसीऐ नामे सांति आई ॥ नाइ सुणिऐ मनु त्रिपतीऐ सभ दुख गवाई ॥
नाइ सुणिऐ नाउ ऊपजै नामे वडिआई ॥ नामे ही सभ जाति पति नामे गति पाई ॥
[viii] गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥
[ix] कहु कबीर मै सो गुरु पाइआ जा का नाउ बिबेकुो ॥४॥५॥
[x] मुकति नही बिदिआ बिगिआनि ॥
[xi] सबदु गुर पीरा गहिर ग्मभीरा बिनु सबदै जगु बउरानं ॥
[xii] सो गुरु करहु जि बहुरि न करना ॥ सो पदु रवहु जि बहुरि न रवना ॥
सो धिआनु धरहु जि बहुरि न धरना ॥ ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना ॥२॥
[xiii] एकु सबदु मेरै प्रानि बसतु है बाहुड़ि जनमि न आवा ॥१॥
[xiv] नाइ सुणिऐ घटि चानणा आन्हेरु गवावै ॥ . . . नाइ सुणिऐ पाप कटीअहि निरमल सचु पावै ॥