8. “ਮਾਇਆ ਮਮਤਾ ਮੋਹਣੀ”

माया मन को मोह लेती है

भ्रम का सिद्धांत (माया)

“हे, मेरे व्यापारी मित्र, रात की तीसरे पहर (जवानी की सुंदरता) में, तेरा मन सुंदरता और धन पर केन्द्रित है। तुझे प्रभु के नाम की याद नहीं है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने बंधन से मुक्त हो जाता है। तुझे अपने प्रभु का नाम याद नहीं है और तू अपना सिर को खो देगा, माया के प्रलोभन द्वारा – तेरा मन सुंदरता और धन पर टिका हुआ है”[i]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 75

उपरोक्त श्लोक यह स्पष्ट करता है कि माया का सिद्धांत मूल रूप से हिंदू धर्म के अद्वैतवादी (वेदांत) साहित्य से लिया गया है, जहां इसे माया के ब्रह्मांडीय सिद्धांत के रूप में देखा जाता है, जिसमें इसे एक भ्रम, माया, मिथ्या या एक ऐसा परदा कहा गया है, जो सत्य की वास्तविकता को छुपा लेता है। इसका शाब्दिक अर्थ यह है कि यह संसार केवल उतना ही वास्तविक है, जितना कि यह एक दर्पण में दिखाई देता है। ऐसा माना जाता है कि यह एक व्यक्ति और वास्तविकता के बीच खड़ा होता है, जो मानव मन में भ्रम और धोखे को उत्पन्न करता है, और एक व्यक्ति के लिए ज्ञान में प्रगति करने और उसे परम आनंद की अवस्था तक पहुंचने में विरोध खड़ा करता है।[ii]  यद्यपि, इस सिद्धांत की अलग-अलग परिभाषाएँ हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों द्वारा दी गई है, तथापि उनमें से एक पंथ, भक्ति आंदोलन है, जो यह मानता है कि,

“यह केवल माया ही है, जो हमें इस समझ के प्रति कमजोर कर देती है कि पूरे ब्रह्मांड में केवल एक ईश्वर है और ब्रह्मांड में सब कुछ उसी का प्रकटीकरण है। इसलिए इस वास्तविकता को समझने के लिए एक भक्त को माया से परे जाना पड़ता है।”[iii]

यद्यपि, सिख दर्शन में, माया को अपने उत्तम तरीके में धोखा या दुविधा के रूप में अनुवादित किया गया है और भ्रम (एक झूठे विचार की मान्यता) के रूप में नहीं, हे मेरी माँ, माया बहुत ही अधिक भ्रामक और धोखेबाज है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 717)।[iv]  संसार वास्तविक है, परन्तु यह स्थायी नहीं है। हे माँ! परमात्मा के भजन के बिना तिनकों की आग है, बादलों की छाया हैबहाड़ का पानी है (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 717)।[v]  माया उन गुणों की दिए जाने की प्रस्ताव देती है, जिन्हें दोनों अच्छे या चाहने योग्य स्वीकार किया जाता है, परन्तु जो एक धोखे, एक भ्रम होते हैं, क्योंकि, देखो, संसार कमजोर हो रही है, यह पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा”  (गुरु ग्रंथ , पृष्ठ. 932)।[vi]

इसलिए, जो कोई इस तरह से संसार की चाह करता है और इसका अनुसरण करता है, वह माया का शिकार है, तुम माया के प्यार में पड़कर इस जीवन को व्यर्थ कर रहे हो” (गुरु ग्रंथ , पृष्ठ. 12)।[vii]  इस कारण, इसका अनुसरण करने पर वह जो दंड मिलता है, वह संसार-चक्र में फिर से आ जाना है, माया से मिलने वाले दुःख से बढ़कर कोई दुःख नहीं है; यह लोगों को तब तक पूरे संसार में भटकने के लिए मजबूर करता है, जब तक कि वे थक नहीं जाते  (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 39)[viii] और, दुविधा से बंधे हुए, वे पुनर्जन्म में आते हैं और जाते हैं (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 109)।[ix]

माया मूलभूत रूप में झूठ है और सत्य के विरुद्ध खड़ी हुई है। इस प्रकार, इस संसार के कार्यों में सम्मिलित होने का अर्थ माया से जुड़ा हुआ होना है और इसका परिणाम केवल ईश्वर से पृथक होने में ही निकलता है। माया अंजन अर्थात् आँखों के सूरमे के जैसी है, यह पूर्ण रीति से काली (अंधकार और असत्य) है जबकि ईश्वर निरंजन है, अर्थात् पूर्ण रीति से शुद्ध है (जो अंधकार और असत्य से परे है), ईश्वर, मन का ज्ञाता, मन को खोजने वाला, सब कुछ जानने वाला वह अदृश्य और पूरी तरह से पवित्र है (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 300)।[x]  इस तरह, सिक्ख धर्म में समस्या का निपटारा माया के साथ अधिक किया जाता है, अज्ञानता (दुविधा) या भ्रम के साथ नहीं। जो लोग माया के प्रभाव को स्वीकार करते हैं, वे स्वयं को दुविधा के साथ भ्रमित करते हैं अर्थात् भ्रम और ईश्वर के साथ होने वाले मेल-मिलाप के विरुद्ध खड़े होते हैं। गुरु ग्रंथ कहता है कि, माया का शिष्य झूठा है, वह सत्य से घृणा करता है, झूठी प्रीति में जकड़ा हुआ व्यक्ति शाश्वत ईश्वर का नाम पसंद नहीं करता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 109)।[xi]

इसके अतिरिक्त, सिख धर्म शिक्षा देता है कि माया भी ईश्वर के द्वारा ही बनाई गई थी। माया प्रथम स्रोत से आई है, जो कि ईश्वर आप है, परन्तु यह एक सेवक के रूप में आई है। इसलिए, यह सेवक, जो कि माया है, में तीन गुण पाए जाते हैं, जो एक मनुष्य को प्रभावित करते हैं,

“रजो गुण, ऊर्जा और गतिविधी का गुण है; तमो गुणवत्ता, अंधकार और जड़त्व का गुण है; सतो गुण, शुद्धता और प्रकाश का गुण है; इन सभी को माया, तुम्हारा भम्र कहा जाता है, चौथी अवस्था को पहचानने वाला मनुष्य उच्चतम परम, आध्यात्मिक अवस्था को प्राप्त करता है”[xii]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 1123

माया से छुटकारा पाने का उपाय सतगुरु में दिया गया है। एक भक्त को सतगुरु से मुलाकात करनी होगी, गुरु के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं होती, और माया की दुचित्ती सोच को दूर नहीं किया जाता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 67), [xiii] और नाम जाप के लिए उस से नाम प्राप्त करना होता है, क्योंकि यह केवल सतगुरु के पास है, जो कि एक भक्त की दुविधा को दूर करता है और उसे सत्य का एहसास कराता है, झूठी माया ने पूरे संसार को बाँध रखा है, परन्तु मुझे तो प्रभु का नाम जपने में शांति मिलती है (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 482)।[xiv]

इस तरह, एक भक्त को यह पता चल जाता है कि माया एक भ्रम है या दूसरे शब्दों में यह एक धोखा है। अपने तीन गुणों के कारण इसने सृष्टी को इस सीमा तक प्रभावित किया है कि जो लोग संसार के साथ प्रेम करना चाहते हैं और इसके मार्ग का अनुसरण करना चाहते हैं, वे माया के शिकार होते हैं। माया वास्तव में एक झूठ है और सत्य के विरुद्ध खड़ी है। एक भक्त को मोक्ष अर्थात् मुक्ति प्राप्त करने के लिए माया की समस्या से जूझना पड़ता है। सतगुरु से मुलाकात होने पर इस समस्या को आसानी से समाधान किया जा सकता है, क्योंकि उसके पास झूठ को दूर करने की क्षमता है।

परन्तु फिर भी, हमारा यह लेख एक भक्त को कुछ प्रश्न पूछने के लिए मजबूर करता है। वह सतगुरु कहाँ है, जो माया के प्रभाव को दूर कर सकता है? कौन छुटकारा दे प्रदान कर सकता है? कौन एक साधक को माया के प्रभाव और उसकी शक्ति से छुटकारा दिलाने में सहायता कर सकता है। ईश्वर का एक भक्त इसकी खोज कहां कर सकता है कि वह ऐसे ईश्वरीय ‘नाम’ को पा ले कि जिसे पुकारने या जिसका जाप करने से उसे परम आनंद को प्राप्त करने में सहायता मिल सकती है। सत्य क्या है? वह कहाँ है? हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर सतगुरु यीशु मसीह में पाते हैं।

सत्य क्या है?” (यूहन्ना 18:38)। यह एक बहुत ही पुराना प्रश्न है, जो उस समय के कई लोगों और सतगुरु यीशु मसीह से एक राज्य के राज्यपाल ने पूछा था। राज्यपाल सत्य को जानना चाहता था। उसे सतगुरु यीशु मसीह से यह उत्तर मिला, मैं इसलिये संसार में आया हूँ कि सत्य की गवाही दूँ। जो कोई सत्य का है, वह मेरा शब्द सुनता है (यूहन्ना 18:38)। यह सत्य कहाँ है? सतगुरु यीशु मसीह ने एक बार फिर इसका उत्तर कुछ इस तरह से दिया है, मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ। बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता (यूहन्ना 14:6)।

इसके अतिरिक्त, सतगुरु यीशु मसीह ही एक ऐसा “नाम” है, जो उद्धार अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए दिया गया है। “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों के काम 4:12)। वह जगत का प्रकाश है, जो अंधेरे को दूर करता है, जगत की ज्योति मैं हूँ; जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा (यूहन्ना 8:12)। इस तरह माया की वास्तविक समस्या का समाधान हो जाता है। भ्रमित करने वाली समस्या अर्थात् दुविधा का सतगुरु यीशु मसीह ने समाधान कर दिया है।

जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि माया ईश्वर द्वारा सृजी गई है, परन्तु इसने लोगों के मन में अंधकार ला दिया है, इसलिए मनुष्य अपने सृष्टिकर्ता परमेश्वर से स्वयं अपनी शक्ति द्वारा नहीं मिल सकता है, वह न तो वास्तविकता और न ही सच्चे नाम को समझ सकता है। और न ही सच्चे नाम (सत नाम) के प्रकाश को देख सकता है। ग्रंथ बाइबल में माया के जैसा ही कुछ मिलता-जुलता मिलता है, जिसके लिए कहा गया है कि,

“इस संसार के ईश्‍वर ने विश्‍वास न करने वालों की बुद्धि अंधी कर दी है, ताकि सतगुरु यीशु मसीह जो परमेश्‍वर का प्रतिरूप है, उसके तेजोमय सुसमाचार का प्रकाश उन पर न चमके”

2 कुरिन्थियों 4:4

इस प्रकार, इस संसार में सतगुरु यीशु मसीह के आने के साथ ही, अज्ञानता की दीवार, अंधेरे की दीवार, भ्रम की दीवार, छलावे की दीवार जो कि एक भक्त और उसके प्रेमी के बीच खड़ी थी और उसे अपने निर्माता से अलग किया हुआ था, को ढाह दिया गया है। पृथकता को समाप्त कर दिया गया था, इसे ध्वस्त कर दिया गया है। इसलिए ग्रंथ बाइबल कहता है, कि सतगुरु यीशु मसीह,

“हमारा मेल है, जिसने दोनों को एक कर लिया और अलग करने वाली दीवार को जो बीच में थी ढा दिया”

इफिसियों 2:14

इस तरह, परमेश्‍वर के साथ मेल-मिलाप को उसके द्वारा लाया गया है, सतगुरु यीशु मसीह में उसके साथ जीवित किया, और स्वर्गीय स्थानों [बैकुण्ठ या सचखंड] में उसके साथ बैठाया” (इफिसियों 2:6)। एक समय, हम इस “नाम” से हमारी आँखों पर पड़े हुए परदे या अन्धेरे के कारण बहुत दूर थे, परन्तु अब हम उसके निकट आ गए हैं, पर अब सतगुरु यीशु मसीह में तुम जो पहले दूर थे . . . निकट आ गए हो” ( इफिसियों 2:13)। ग्रंथ बाइबल आगे कहता है कि, सतगुरु यीशु मसीह, आकर तुम्हें जो दूर थे और उन्हें जो निकट थे, दोनों को मेल-मिलाप का सुसमाचार सुनाया”  (इफिसियों 2:17)। इसलिए, ग्रंथ बाइबल स्पष्ट रूप से बताता है कि, हर एक जो उसके नाम को लेगा वह बचाया जाएगा (रोमियों 10:13)।

परिणामस्वरूप, जिस क्षण एक भक्त सतगुरु यीशु मसीह से मुलाकात करता है, उसका भ्रम, उसका धोखा दूर हो जाता है। वह उसी क्षण बच जाता है। वह ईश्वर (अनहद नाद) की आवाज को पहचानता है। वह अपनी मूल अवस्था से ऊपर उठ जाता है और स्वर्गीय स्थान (सच खंड) में वास करने लगता है। इस तरह, वह माया के सभी प्रभावों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त करता है, जिसका अर्थ है मुक्ति, और वह जीवन-मुक्ता बन जाता है, क्योंकि अब वह अपने गुरु को पहचानता है। वाहेगुरु (सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्ता या सभी का ईश्वर) अपनी कृपा में उसे नाम-नामक दवाई देता है, जो माया के विष को खत्म कर देती है। यह दवाई सतगुरु यीशु मसीह का ‘नाम’ है। सतगुरु यीशु मसीह का नाम ही माया के जादू को तोड़ देता है। माया को नियंत्रण में लाया जाता है और उसके बाद यह आगे के लिए एक भक्त को परेशान नहीं करती। इसीलिए श्री गुरु ग्रंथ साहिब के शब्द यहाँ बातने सही जान पड़ते हैं: परन्तु गुरु के बिना कोई भी तुझे नहीं पा नहीं सकता। सभी माया द्वारा छले जाते हैं, और इसमें फंस जाते हैं (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 71)।[xv]


[i] तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धन जोबन सिउ चितु ॥

हरि का नामु न चेतही वणजारिआ मित्रा बधा छुटहि जितु ॥

हरि का नामु न चेतै प्राणी बिकलु भइआ संगि माइआ ॥

धन सिउ रता जोबनि मता अहिला जनमु गवाइआ ॥

[ii] अधिक जानकारी के लिए – हिंदू साहित्य के श्री राम चरित्र मानस (रामायण) के अरण्य कांड 1.1, 2.3 और उत्तर कांड 77.3 को देखें।

[iii] एच. एस. सिंह, सिख धर्म विश्वकोष,” (नई दिल्ली: हेमकुंड पब्लीकेश्न लिमिटेड), पृष्ठ. 143,

[iv] माई माइआ छलु

[v] त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिद भजन बिनु हड़ का जलु ॥ रहाउ ॥

[vi] छेआ नित देखहु जगि हंढि ॥

[vii] जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ ॥

[viii] माइआ जेवडु दुखु नही सभि भवि थके संसारु ॥

[ix] दुबिधा बाधा आवै जावै ॥

[x] अंतरजामी प्रभु सुजानु अलख निरंजन सोइ ॥

[xi] साकत कूड़े सचु न भावै ॥

[xii] रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥

चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥

[xiii] बिनु गुर मुकति न पाईऐ ना दुबिधा माइआ जाइ ॥५॥

[xiv] झूठी माइआ सभु जगु बाधिआ मै राम रमत सुखु पाइआ ॥३॥३॥२५॥

[xv] सतिगुर बाझु न पाइओ सभ मोही माइआ जालि जीउ ॥३॥

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