अहंकार की समझ ही मोक्ष का द्वार है
शब्द हउमै का उपयोग अक्सर उन लोगों के लिए किया जाता है, जो गुरुमुख अर्थात् जीवन मुक्ता की दशा तक नहीं पहुंचे हैं या जिन्होंने अभी तक मुक्ति को प्राप्त नहीं किया है। सिख धर्म में, एक मनमुख अर्थात् मनमर्जी करने वाले व्यक्ति के लिए अहंकार एक पाप, एक व्याधि एक बीमारी या रोग है। यद्यपि गुरु नानक द्वारा प्रयुक्त शब्द के अर्थ को परिभाषित करना कठिन है, फिर भी इसका शाब्दिक अर्थ है “मैं” से ही है।[i]
आप इसका जो भी नाम लें, यह शब्द हउमै आध्यात्मिक और नैतिक दोनों तरह की बीमारियों को संदर्भित करता है। श्री गुरु अमर दास जी ने इस बारे में बहुत ही सही शब्दों में कहा है, कि यह एक तरह की गंदगी है, जो एक व्यक्ति के साथ चिपकी रहती है। यह एक तरह का बने रहने वाला प्रदूषण है, जो अपने शिकार को दुख देता रहता है, और उसी समय शुद्धता के लिए उसके द्वारा किए जाने वाले सभी प्रयासों का विरोध करता है: “दुनिया अंहकार की गंदगी के साथ प्रदूषित, इसकी पीड़ा से पीड़ित है। यह गन्दगी उसके साथ चिपकी रही है, क्योंकि वह दुबिधा को प्यार करता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 39)।[ii]
श्री गुरु राम दास जी इसमें कुछ और भी कुछ जोड़ देते हैं और कहते हैं कि मानव मन की गहराई में अहंकार बसा हुआ है, “मन की गहराई में अहंकार का रोग है; स्वै-इच्छा वाले व्यक्ति अर्थात् मनमुख, अर्थात् बुरे मनुष्य, अपनी शंकाओं के कारण भटक जाते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 301)।[iii] अहंकार के निहित स्वभाव के कारण, “अहंकार में वे आते हैं, और अहंकार में वे चले जाते हैं। हउमै में वे जन्म लेते हैं, और हउमै में वे मर जाते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 466)।[iv] यही कारण है कि एक साधक इसके प्रति इतना अधिक आज्ञाकारी होता है या वह हउमै का दास है, “स्वै-इच्छा वाले व्यक्ति अर्थात् मनमुख केवल अपने ही घमण्ड की प्रशंसा करते हैं; अहंकार के प्रति उनका लगाव व्यर्थ है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 301)।[v]
भावनाओं या इन्द्रियों की पाँच पारम्परिक बुराइयाँ हैं, जो अहंकार की सन्तान हैं, जो एक साधक के जीवन पर शासन करती हैं, “इस शरीर में पाँच चोर बसते हैं: वासना (काम), गुस्सा (क्रोध), लालच (लोभ), आवेशपूर्ण लगाव (मोह) और अभिमान (अहंकार)” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 600)।[vi] क्योंकि, एक साधक ऐसे शरीर में फंस गया हुआ है, जो इन पांच विकारों से बंधा हुआ है। इसलिए, ये विकार या चोर एक साधक के विचारों, भावनाओं और कार्यों की दिशा को निर्धारित करते हैं।
इस तरह, अहंकार एक साधक को नियंत्रित करता है और यही वह है, जो उसके जीवन जीने के तरीके को निर्धारित करता है। दूसरे शब्दों में, शरीर किसी व्यक्ति की नियति या गंतव्य को तय करता है। परिणामस्वरूप, मोक्ष का द्वार अहंकार के प्रभाव के कारण बंद हो जाता है। सत्य को प्राप्त करने के लिए द्वार बन्द रहता है, क्योंकि ईश्वर के साथ मेल-मिलाप स्थापित करने के लिए बीच रास्ते में अहंकार खड़ा हुआ है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब आगे कहते हैं कि एक साधक द्वारा किए गए सभी प्रयास व्यर्थ हैं, “अहंकार की गंदगी को हटाया नहीं जा सकता, भले ही कोई हजारों तीर्थ स्थानों में जाकर स्नान ही क्यों न करे” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 39)।[vii] इसलिए, इस आंतरिक बीमारी के उपचार के लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि एक साधक इससे पीड़ित है या इससे दु:खी है, “जब कोई अहंकार को समझता है, तभी वह प्रभु के द्वार को जान जाता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 446), [viii] और इसके लिए दूसरा उपचार सच्चे गुरु से मिलना में है, “हे नानक, यह रोग तभी मिटता है, जब कोई सच्चे गुरु अर्थात् अपने पवित्र मित्र से मुलाकात करता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 301)।[ix]
उपरोक्त तथ्य की समझ हमारी आँखें को खोल देती हैं, क्योंकि हमारा शरीर अहंकार के पिंजरे में कैद है, इसलिए यह न तो अच्छे कर्मों का उत्पन्न कर सकता है और न ही हमारे स्वामी प्रभु से मिलने में हमारी सहायता कर सकता है। यह स्पष्ट रूप से प्रेमी और उसकी प्रेमिका के बीच, गुरु और शिष्य के बीच, सच्चे गुरु और उसके पीछे चलने वाले एक शिष्य के बीच एक अलग कर देने वाली दीवार के रूप में खड़ा होता है। साधक की आंखें इतनी अधिक अंधी हो जाती हैं कि वे अहंकार के स्वभाव को माप भी नहीं सकता है। इसलिए, यह हमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने की ओर ले जाता है कि कैसे एक साधक उसके शरीर को कैद में रखने वाले अहंकार से छुटकारा पा सकता है। यदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब में सभी धार्मिक प्रयासों की कल्पना को व्यर्थ ठहराया गया है, तो एक साधक गुरु से कैसे मिले और कैसे एक साधक को इस अंधकार को दूर करने के लिए सच्चा नाम (सत नाम) या सतगुरु मिलेगा।
हम इन प्रश्नों के उत्तरों को स्पष्ट रूप से ग्रंथ बाइबल में पाते हैं। ग्रंथ बाइबल कहता है कि यह सच है कि “मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती। इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते” (रोमियों 7:18)। परिणामस्वरूप, मनुष्य के काम बुरे हैं, “शरीर के काम तो प्रगट हैं, अर्थात् व्यभिचार, गन्दे काम, लुचपन, मूर्तिपूजा, टोना, बैर, झगड़ा, ईर्ष्या, क्रोध, विरोध, फूट, विधर्म, डाह, मतवालापन, लीलाक्रीड़ा और इनके जैसे और-और काम हैं” (गलातियों 5:19-20)। इसमें और भी कुछ जोड़ दिया गया है, “ऐसे ऐसे काम करने वाले परमेश्वर के राज्य (सचखण्ड) के वारिस न होंगे” (गलातियों 5:21)। इसलिए, एक साधक, स्वयं से मोक्ष प्राप्त करने में सक्षम नहीं है, वह चिल्लाता रहता और कहता फिरता है कि, “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?” (रोमियों 7:24)।
एक साधक जो सतगुरु की खोज करता है, वह फिर से ग्रंथ बाइबल में से ही इसका उपयुक्त उत्तर पाता है। ग्रंथ बाइबल कहता है कि एक साधक को सबसे पहले बुराई से निपटना चाहिए, क्योंकि एक साधक “पाप और अपराध के कारण मरा हुआ [आत्मिक और नैतिक तौर पर] है” (इफिसियों 2:1)। इस मृत आत्मा को फिर से जीवित करने के लिए, हमारे प्रभु और स्वामी सतगुरु यीशु मसीह स्वयं इस पृथ्वी पर मनुष्य को उसकी अयोग्य अवस्था से बचाने के लिए नीचे उतर आए, “परन्तु परमेश्वर ने जो दया का धनी है, अपने उस बड़े प्रेम के कारण जिस से उसने हम से प्रेम किया, जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे तो हमें मसीह के साथ जिलाया – अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है” (इफिसियों 2:4-5)।
ग्रंथ बाइबल आगे कहता है कि, हमारे शरीर की बीमारी या अक्षमता को जानते हुए, सतगुरु यीशु मसीह ने आप हमारे शरीर को फिर से पुर्नजीवित किया,
“पर जब हमारे उद्धारकर्ता परमेश्वर की कृपा और मनुष्यों पर उसका प्रेम प्रगट हुआ, तो उसने हमारा उद्धार किया; और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार नए जन्म के स्नान और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ। जिसे उसने हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह के द्वारा हम पर अधिकाई से उंडेला। जिस से हम उसके अनुग्रह से धर्मी ठहरकर, अनन्त जीवन की आशा के अनुसार वारिस बनें” ।
तीतुस 3: 4-7
इस तरह, हमारे बुरे शरीरों को न केवल पुर्नजीवित किया गया, अपित नया भी बना दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप इसने हमें शाश्वत जीवन प्राप्त करने में सक्षम बना दिया। इसलिए, सच्चे नाम (सत नाम या वाहेगुरु) का, अर्थात् सतगुरु यीशु मसीह, का सच खण्ड (सत्य का क्षेत्र) से आना, इस रोगी शरीर की एकमात्र दवा है। इसके अतिरिक्त, क्योंकि वह स्वर्ग से नीचे आया था, इसलिए स्वर्ग स्वयं उसकी बनाई हुई सृष्टि में रहने के लिए आ गया, क्योंकि वास्तव में सच खण्ड (सत्य का क्षेत्र) स्वयं ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसीलिए सतगुरु यीशु मसीह ने एक बार ऐसे कहा था,
”परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा” ।
यूहन्ना 4:14
परिणामस्वरूप, उसका आना हमें धार्मिक कर्मों (धर्म खंड) के क्षेत्र अर्थात् संसार से से सच्चाई के क्षेत्र (सच खंड) तक ले जाता है। अब साधक के मन में केवल एक ही इच्छा शेष रह जाती है,
“एक वर मैं ने अकाल पुरख परमेश्वर से माँगा है, उसी के यत्न में लगा रहूँगा; कि मैं जीवन भर परमेश्वर के भवन में रहने पाऊँ, जिससे कि मैं परमेश्वर की मनोहरता पर दृष्टि लगाए रहूँ, और उसके मन्दिर में ध्यान किया करूँ”
भजन संहिता 27:4
। इस इच्छा की और अधिक व्याख्या आगे इस प्रकार की गई है:
“निश्चय भलाई और करुणा जीवन भर मेरे साथ साथ बनी रहेंगी; और मैं अकाल पुरूष परमेश्वर के धाम [सच खंड] में सर्वदा वास करूँगा!” ।
भजन संहिता 23:6
अब, यह सब कैसे हमारे लिए संभव किया गया है? इसका सरल सा उत्तर यह है कि, क्योंकि सतगुरु यीशु मसीह एक साधक को मिल गए हैं, उन्होंने उस में सब कुछ नया कर दिया, इसीलिए ग्रंथ बाइबल कहता है कि, “इसलिये यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है : पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, सब बातें नई हो गई हैं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। इसके परिणामस्वरूप, सतगुरु यीशु मसीह द्वारा शरीर की बनाई गई नई सृष्टि के काम के कारण अंहकार की चिरकालिक गंभीर बीमारी दूर हो जाती है,
“एक दूसरे से झूठ मत बोलो, क्योंकि तुम ने पुराने मनुष्यत्व को उसके कामों समेत उतार डाला है और नए मनुष्यत्व को पहिन लिया है, जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है”
कुलुस्सियों 3: 9-10
। यह एक स्वै-इच्छा पर चलने वाले व्यक्ति अर्थात् एक मनमुख को एक गुरुमुख अर्थात् जिसका मन गुरु की ओर झुका रहता है, में बदल देता है। इसीलिए इस प्रकार के व्यक्ति के बारे में श्री गुरु नानक देव जी के शब्द यहाँ कहे जाने उचित ही प्रतीत होते हैं, “हे नानक, वे एक बहादुर योद्धा हैं, जो अपने आंतरिक अहंकार पर विजय प्राप्त करते हैं और उसे अपने अधीन कर लेते हैं” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 86)।[x]
[i] डब्ल्यू. ओवेन कोल, पियारा सिंह सांभी. “सिख धर्म का एक लोकप्रिय शब्दकोश: सिख धर्म और दर्शन.“ (नई लन्दन: रूटलेज, 1997), पृष्ठ. 40.
[ii] जगि हउमै मैलु दुखु पाइआ मलु लागी दूजै भाइ ॥
[iii] मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥
[iv] हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ ॥ हउ विचि जमिआ हउ विचि मुआ ॥
[v] मनमुख अहंकारु सलाहदे हउमै ममता वादु ॥
[vi] इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥
[vii] मलु हउमै धोती किवै न उतरै जे सउ तीरथ नाइ ॥
[viii] हउमै बूझै ता दरु सूझै ॥
[ix] नानक रोगु गवाइ मिलि सतिगुर साधू सजना ॥१॥
[x] नानक सो सूरा वरीआमु जिनि विचहु दुसटु अहंकरणु मारिआ ॥