6. “इसु कलिजुग महि करम धरमु न कोई”

अच्छे कर्म, जन्म और मृत्यु और ईश्वर की इच्छा

अच्छे कर्मों का सिद्धांत पुनर्जन्म और संसार-चक्र के सिद्धांत के साथ अति घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। “जन्म-मरण में आना और जाना” (आवागमन) एक बहुत ही लोकप्रिय वाक्यांश है, जिसका उपयोग गुरुओं द्वारा जन्म और मृत्यु की अवधारणा को प्रचारित करने के लिए किया गया है। यह कहता है कि एक आत्मा को मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करने के लिए एक सांसारिक यात्रा के माध्यम से होकर जाना होगा। सिख धर्म में, कर्म के सिद्धांत के अनुसार, वर्तमान जीवन किसी के पिछले जन्म के कर्मों के फलस्वरूप है। इसलिए, जो वह बोता है, उसे ही वह काटता है, शरीर इस युग में कर्म की खेती है; तुम जो बोओगे, वही काटोगे (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 78)।[i]

गुरु ग्रंथ आगे दावा करता है कि मनुष्य ने इस अनमोल मानवीय चोले अर्थात् शरीर को प्राप्त किया है, जो इस धरती पर रहते हुए मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोच्च तरीका है। लेकिन अच्छे कर्मों की फसल में कोई भी शामिल नहीं है, कलयुग के इस अंधेरे युग में, कोई भी अच्छे कामों, या धार्मिक विश्वास में दिलचस्पी नहीं रखता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 161)।[ii]  स्वयं-इच्छा-धारी मनमुख कर्म करता है, और प्रभु के दरबार में, उसे अपने कर्मों की सजा मिलती है  (गुरु ग्रंथ पृष्ठ. 3), [iii] और उसके बुरे कर्मों की सजा पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र में आना-जाना है, अन्धा, स्वयं-इच्छा-धारी मनमुख  पुनर्जन्म के चक्र में आता और जाता रहता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 161)।[iv]

गुरु ने कर्म के सिद्धांत को न बदलने वाले रूप में स्वीकार नहीं किया जैसा कि यह भारतीय धार्मिक परंपराओं में देखा जाता है। बल्कि, उन्होंने इसकी पहचान प्रकृति के स्वभाव के साथ की। कर्म चाहे अच्छा हो या बुरा, अतीत वाला हो या वर्तमान वाला, पुराना हो या नया, लेकिन तौभी यह हुक्म (ईश्वरीय कानून, ईश्वरीय इच्छा या ईश्वरीय प्रशंसा (भाणा, रज़ा)); ईश्वरीय अनुमति (अमर, फ़रमान); दैवीय शक्ति या दिव्य रचना (कुदरत) और नदर (ईश्वरीय अनुग्रह) के अधीन ही है। इस प्रकार, यद्यपि कर्म का सिद्धांत और जन्म और मृत्यु का चक्र हिंदू धर्म के समान है, फिर भी यह हिंदू धर्म से थोड़ा अलग है। परिणामस्वरूप, कर्म परम आनंद की प्राप्ति के लिए सिख धर्म में ईश्वरीय कानून (हुक्म) का हिस्सा बन जाता है।

जन्म और मृत्यु के चक्र से बचने के लिए या दूसरे शब्दों में बुरे कर्मों से बचने के लिए, गुरु नानक देव जी ने सुझाव दिया है कि मनुष्य को हुक्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और इस प्रकार ईश्वर की इच्छा का पालन करना चाहिए। सर्वशक्तिमान ईश्वर की इच्छा के बारे में, गुरु नानक देव जी कहते हैं कि, “कोई कैसे शुद्ध हो सकता है? भ्रम अर्थात् माया का पर्दा कैसे टूट सकता है? हे नानक, उसके हुक्म में चलने से; यह तेरी नियति में लिखा है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 1)।[v]  इस विचार में और अधिक जोड़ने के लिए, गुरु ग्रंथ आगे कहता है कि: “केवल हुक्म को समझने से ही सच्चे ईश्वर की प्राप्ति होती है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ 1169)।[vi]  तदनुसार,

“ईश्वरीय इच्छा” या “हुक्म” के अनुसार चलने पर ही शाश्वत शांति मिलती है। इसलिए, सबसे महत्वपूर्ण बात एक सिख के लिए यह है कि उसकी इच्छा को ईश्वर की इच्छा अर्थात् रज़ा या हुक्म की इच्छा में लाना है, “उसके हुक्म की आज्ञा को मानने से ही, तू अपने ईश्वर और गुरु से मिलेगा”[vii]

गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 92

इस कारण, कर्मों के सिद्धांत का सारांश यह है कि एक साधक या सिख का अंतिम लक्ष्य सच खण्ड को प्राप्त करना है। यह मनमुख (स्वैच्छिक व्यक्ति) से गुरुमुख (एक व्यक्ति जो ईश्वर की इच्छा के अधीन है) के रास्ते पर चलना है, हे नानक, गुरुमुख प्रभु को जानता है; अपनी दया में होकर, वह स्वयं उन्हें आप साथ जोड़ लेता है”  (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 444)।[viii]   जब एक साधक अपने आपको ईश्वर के हुक्म के अधीन करता है और उसकी इच्छा (रज़ा) के अनुसार जीवन जीता है, तब उस साधक पर ईश्वरीय कृपा अर्थात् अनुग्रह प्रगट होता है। एक साधक को ईश्वरीय कृपा (नदर) प्राप्त होती है, जो अहंकार (हऊमै) को नष्ट कर देती है, जिसके परिणामस्वरूप एक साधक जीवन-मुक्ता बन जाता है, अर्थात, वह जीवित रहते हुए ही मोक्ष अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, पिछले जन्म के कर्मों के माध्यम से, इस जन्म का चोला प्राप्त होता है। उसकी कृपा से, मोक्ष का द्वार मिल जाता है (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 2)।[ix]  दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति को उसके हुक्म के प्रकाश में चलने के लिए आमंत्रित किया जाता है और उसके हुक्म के प्रकाश में चलने के लिए, एक साधक को सतगुरु से मिलना होगा।

इतने फिर भी, अर्थात् जो कुछ ऊपर लिखा गया है, उसकी समझ एक साधक को गंभीर प्रश्नों की जांच करने के लिए प्रेरित करती है, जैसे कि एक व्यक्ति क्यों और कैसे उसे ही काटता है, जिसे वह बोता है। अच्छे कर्मों की फसल में क्यों कोई शामिल नहीं होता। धर्म में उसका विश्वास उसे स्थायी शांति दिलाने के लिए पर्याप्त क्यों नहीं है? हुक्म (ईश्वरीय कानून, ईश्वरीय इच्छा या ईश्वरीय प्रसन्नता) क्या है और कोई इसके अधीन कैसे हो सकता है? हुक्म को कोई कैसे पहचान सकता है? मनमुख से गुरुमुख की ओर एक व्यक्ति कैसे जा सकता है। वह प्रकाश कहां है, जिसके द्वारा किसी को दयालु ईश्वर और उसके हुक्म के साथ जोड़ा जा सकता है? इन सवालों के जवाब की खोज के लिए, हमें एक बार फिर से ग्रंथ बाइबल पर ध्यान देना चाहिए।

ग्रंथ बाइबल स्पष्ट रूप से बताता है कि एक व्यक्ति जो बोता है, उसे ही काटता, इसका मुख्य कारण यह है कि, हालांकि मनुष्य ईश्वर की सर्वोच्च रचना है, वह वास्तव में सर्वशक्तिमान ईश्वर की रचना का मुकुट है। “क्योंकि तू ने उसको परमेश्‍वर से थोड़ा ही कम बनाया है, और महिमा और प्रताप का मुकुट उसके सिर पर रखा है” (भजन संहिता 8:5) फिर भी मनुष्य अपनी दुष्टता और दयनीय स्थिति के कारण परम दयालु और कृपालु ईश्वर से दूर है, ऐसा उसकी इच्छा और उसके विद्रोह के कारण है:

“कोई धर्मी नहीं, एक भी नहीं। कोई समझदार नहीं; कोई परमेश्‍वर का खोजने वाला नहीं। सब भटक गए हैं, सब के सब निकम्मे बन गए हैं; कोई भलाई करने वाला नहीं, एक भी नहीं।”।

रोमियों 3:11-12

नतीजतन, एक व्यक्ति के धर्म के काम गंदी लोगड़ के अलावा और कुछ भी नहीं हैं, हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है (यशायाह 64:6)। इसलिए, ईश्वरीय कानून में पहली बात यह पाई है कि मनुष्य चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करे, मनुष्य ईश्वर की कृपा या मेहर को प्राप्त करने में सक्षम नहीं है, क्योंकि अंत में ईश्वर की कृपा (दया) परमेश्वर का मुफ्त उपहार है, जिसकी प्राप्ति के लिए हम लायक नहीं है, क्योंकि ग्रंथ बाइबल कहता है कि, यह परमेश्‍वर का दान है” (इफिसियों 2: 8)।

इसलिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि एक व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करने का क्या दावा करता है, एक व्यक्ति क्या सिखाता है, एक व्यक्ति किस तरह की धार्मिक पद्धति को प्रस्तावित करता है, एक किस पद्धति का अनुसरण करता है, एक साधक अपनी सोच के आधार पर कैसा भी जाप क्यों नहीं करता है, जिस भी फार्मूले, या दर्शन का उपयोग करता है, यह सब उसके गंदे और मैले मन के कुएं से ही आते हैं। सतगुरु यीशु मसीह इस पर इस रीति से और अधिक प्रकाश डालते हैं:

“जो कुछ मुँह से निकलता है, वह मन से निकलता है, और वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि बुरे विचार, हत्या, परस्त्रीगमन, व्यभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा मन ही से निकलती है। ये ही हैं जो मनुष्य को अशुद्ध करती हैं”।

मत्ती 15:18-20

इसी कारण एक साथ ईश्वर की कृपा से रहित हो जाता है, वह हमेशा अपने मित्र से दूर रहता है, अपने प्रिय से दूर रहता है, सर्वशक्तिमान के साथ अपने मिलन से दूर रहता है। ईश्वरीय कानून में दूसरी मुख्य बात, ग्रंथ बाइबल में दिखाई देने वाले हुक्म में यह है कि मनुष्य अपने लिए मोक्ष, आनंद या शाश्वत शांति प्राप्त करने के लिए बुरे कर्मों के कारण इतना अधिक दुर्बल हो जाता है कि वह इसे प्राप्त ही नहीं कर सकता है। और, अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण, केवल गंदगी और मैल को ही पैदा करते हैं। इसलिए, एक साधक को ईश्वर की कृपा (नदर, प्रसाद, अनुग्रह, ईश्वरीय करम, आदि) की आवश्यकता होती है। इस कारण, एक साधक को न केवल प्रकाश अर्थात् ज्योति के साथ मिलना होता है, बल्कि इस ज्योति में चलते समय अनुग्रह भी प्राप्त करना होता है।

जिस कृपा की बात ग्रंथ बाइबल करता, उसका स्वभाव वैश्विक है और इसमें मोक्ष या परम आनंद की पूर्णता पाई जाती है। एक साधक को इसे अर्जित करने या कमाने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। यह मुफ्त में ही प्रदान की जाती है। ग्रंथ बाइबल कहता है कि,

“क्योंकि विश्‍वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्‍वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे। “मसीह यीशु में अच्छे काम किए जाते हैं, क्योंक हम. . . सतगुरू यीशु मसीह में भले कामों के लिये सृजे गए”

इफिसियों 2:8-9

तार्किक रूप से कहना, क्योंकि हम अपने गंदे कामों या बुरे कामों के कारण आध्यात्मिक रूप से मर चुके हैं, इसलिए हमारे पास खुद को बचाने की कोई उम्मीद नहीं है, हमारे पास आध्यात्मिक रूप से खुद को बचाने के लिए कोई रास्ता नहीं है। आत्म-जागृति की कोई उम्मीद नहीं है, जिस में एक व्यक्ति द्वारा स्वयं के शरीर को दंडित करना या इस संसार से अलग हो जाना अर्थात् सन्यास ले लेना भी शामिल हो सकता है। ग्रंथ बाइबल इसमें और अधिक यह कहते हुए जोड़ देता है कि, सतगुरु यीशु मसीह, जगत की ज्योति मैं हूँ; जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा (यूहन्ना 8:12)। इसलिए, जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे तो हमें मसीह के साथ जिलाया। अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है (इफिसियों 2: 5)।

इसलिए, अब हम क्या कहें? यह स्पष्ट है कि जब एक मनमुख (अपनी मर्जी का स्वामी) इस अनुग्रह को स्वीकार करता और इसे प्राप्त करता है; तो वह गुरुमुख बन जाता है। वह खुद को हुक्म (ईश्वरीय कानून, ईश्वरीय इच्छा या ईश्वरीय आनन्द) के साथ जोड़ लेता है और उसके अधीन हो जाता है। मुक्ति शब्द को ग्रंथ बाइबल में मोक्ष या मोचन नाम के शब्दों के रूप में अच्छी तरह से परिभाषित किया गया है,

“क्योंकि उसी की ओर से (ईश्वरीय कानून, ईश्वरीय इच्छा या ईश्वरीय आनन्द (भाना, इच्छा)), और उसी के द्वारा (उसकी नदर के द्वारा), और उसी के लिये (उसकी रज़ा के लिए) सब कुछ है। उसकी महिमा युगानुयुग होती रहे। आमीन।।”

रोमियों 11:36

जैसा कि हमने ऊपर देखा है, कोई भी अपने सबसे उत्तम प्रयासों से भी परम आनंद या शाश्वत शांति को प्राप्त नहीं कर सकता है। कोई भी अपने अहंकार (मैं) को मिटाने में सक्षम नहीं है। कोई भी व्यक्ति इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह माया के परदे से मुक्त हो सके, जब तक कि किसी साधक द्वारा प्राप्त अनुग्रह उसे अकाल पुरुख परमेश्वर की ओर से नहीं दिया जाता। कोई भी अपनी क्षमता से इस कृपा को प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए, यह केवल ईश्वर की कृपा ही है, जो हमें बचा सकती है। यह पूरी तरह से ईश्वर का काम है, केवल वही अपनी दया और करुणा में हमारी मदद कर सकता है, क्योंकि वह स्वयं प्रकाश अर्थात् ज्योति है।

यह ईश्वर की कृपा ही है, जो हमें उसके योग्य बनाती है, क्योंकि वह स्वयं ही कृपा का सार और अभिव्यक्ति है। यह ईश्वर की कृपा ही है, जो हमें उसके हुक्म से जुड़ने के लिए तैयार करती है, क्योंकि केवल वही है, जो हमें इसे साकार करने के लिए तैयार कर सकते हैं। इस प्रकार, यह ईश्वर की कृपा है, जो हमारी सहायता करती है, यह उसकी कृपा है, जो हमें इस संसार रूपी गंदे सागर के पार दूसरी ओर ले जाती है। परन्तु, ईश्वर के दिव्य हुक्म अर्थात्य व्यवस्था में इसे संभव बनाने के लिए और हमें ईश्वर की कृपा के लिए सक्षम बनाने के लिए, स्वयं ईश्वर को नीचे आना पड़ा। ग्रंथ बाइबल कहता है कि,

“आदि में शब्द था, और शब्द परमेश्‍वर के साथ था, और शब्द परमेश्‍वर था। यही आदि में परमेश्‍वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ उत्पन्न हुआ है उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई। उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था। ज्योति अन्धकार (संसार) में चमकती है, और अन्धकार (संसार) ने उसे ग्रहण न किया . . . और शब्द देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्‍चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उसकी महिमा देखी . . . क्योंकि उसकी परिपूर्णता में से हम सब ने प्राप्‍त किया अर्थात् अनुग्रह पर अनुग्रह . . . परन्तु अनुग्रह और सच्‍चाई सतगुरु यीशु मसीह के द्वारा पहुँची” ।

यूहन्ना 1: 1-16

इसे निम्नानुसार संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है: एक साधक मोक्ष के लिए ईश्वरीय आदेश अर्थात् हुक्म अर्थात् ग्रंथ बाइबल के अनुसार अपने बुरे कर्मों के कारण ईश्वर की कृपा को प्राप्त नहीं कर सकता है। मूल रूप से एक व्यक्ति का स्वभाव उसे दैवीय कृपा या अनुग्रह अर्जित करने या कमाने में सक्षम नहीं करता है, चाहे वह कितनी भी कोशिश क्यों न कर ले। हालांकि, अनुग्रह अभी भी एक व्यक्ति के बुरे या अच्छे कर्मों की परवाह किए बिना मुफ्त में उपलब्ध है, ताकि एक साधक ईश्वर के साथ अपने मेलमिलाप को स्थापित कर सके और उसके साथ एक हो सके। दूसरी ओर, यह अनुग्रह पूर्ण रूप से सतगुरु यीशु मसीह के माध्यम से ही उपलब्ध है, जो प्रकाश, सत्य और अनुग्रह का सार है। इसलिए, एक साधक को उसके पास आना चाहिए और उससे अनुग्रह प्राप्त करना चाहिए। यदि कोई सिख इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार करता है, तो उसके लिए गुरु ग्रंथ के ये शब्द उपयुक्त हैं, वह जो प्रभु के हुक्म को नहीं जानता है, वह अत्यन्त पीड़ा में तड़प कर रोता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 85)।[x]


[i] करम धरती सरीरु जुग अंतरि जो बोवै सो खाति ॥

[ii] इसु कलिजुग महि करम धरमु न कोई ॥ कली का जनमु चंडाल कै घरि होई ॥

[iii] मनमुख करम कमावणे दरगह मिलै सजाइ ॥१॥

[iv] मनमुखि अंधा आवै जाइ ॥३॥

[v] हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥

[vi] हुकमै बूझै तां साचा पाए ॥४॥

[vii] नालि खसमै रतीआ माणहि सुखि रलीआह ॥

[viii] नानक गुरमुखि रामु पछाता करि किरपा आपि मिलावै ॥७॥

[ix] करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरु ॥ नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरु ॥४॥

[x] हुकमु न जाणै बहुता रोवै ॥ अंदरि धोखा नीद न सोवै ॥

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