4. स्वर्ग और नरक

“सुरग मुकति बैकुंठ सभि बांछहि निति आसा आस करीजै॥“हर कोई स्वर्ग-लोक, मोक्ष और स्वर्ग की इच्छा रखता है;सभी उनमें अपनी उम्मीदें रखते हैं

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में स्वर्ग और नरक की धारण

स्वर्ग और नरक का विचार वास्तव में मृत्यु के बाद जीवन के होने के विचार से जुड़ा हुआ है। ऐसे समय में जब भारत में सिख धर्म विकसित हो रहा था, इस सोच से जुड़ी दो अवधारणाएँ: हिंदू धर्म और इस्लाम अस्तित्व में थीं। हिंदू धर्म पुनर्जन्म और मुक्ति या मोक्ष दोनों की पुष्टि करता है, जो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के विषय में है, जिसे हम संसारिक-चक्र के नाम से जानते हैं। इस से बचाव ईश्वर अर्थात् अकाल पुरख के साथ एक होने की पहचान के ज्ञान से आता है। इसलिए, स्वर्ग और नरक समय और अंतरिक्ष में विद्यमान भौगोलिक क्षेत्रों के रूप में विद्यमान नहीं हैं, जैसा कि इस्लाम में देखा जाता है।[i] एक व्यक्ति इस्लाम में इन्हें इनाम और सजा के विचार के रूप में देखता है, अर्थात् एक व्यक्ति को उसके भले कर्मों के लिए पुरस्कार के रूप में स्वर्ग दिया जाएगा और उसके बुरे कर्मों के लिए सजा के रूप में नरक दिया जाएगा।

गुरु नानक ने उनके समय के जाने-पहचाने संसार में मृत्यु के बाद के जीवन पर प्रचिलत शब्दों जैसे स्वर्ग और बैकुण्ठ के लिए अपने विचारों का उपयोग किया। “उन्होंने स्वर्ग के बारे में हिंदू दर्शन के विचारों को तो स्वीकार किया, परन्तु इस्लामिक विचारों की कड़ी आलोचना की और इस्लामी विचारधारा को पूरी तरह से खारिज कर दिया।”[ii] उदाहरण के लिए, संत कबीर ने गुरु ग्रंथ में ऐसे कहा है कि, स्वर्ग में घर की प्राप्ति की इच्छा मत करो, और नरक में रहने से मत डरो। जो कुछ भी होगा वह होकर ही रहेगा, इसलिए अपनी आशाओं के ढ़ेर को मन में इक्ट्ठा न करो (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 337)।[iii]

यद्यपि, स्वर्ग और नरक दोनों को स्पष्ट रूप से नकारा गया है,[iv] तौभी एक साधक को इससे संबंधित कई श्लोक श्री गुरु ग्रंथ साहिब में मिलते हैं (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 315)।[v] इतने पर भी, स्वर्ग और नरक के बारे में सिख दर्शन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे दोनों कहने के लिए एक व्यक्ति की मानसिक स्थिति (सहजे) मात्र हैं[vi] अर्थात् यह कि यह एक साधक की मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति (संतुलित अवस्था) है। इसलिए, एक व्यक्ति यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि सिख धर्म में ऐसी कोई भी धारण नहीं पाई जाती कि मृत्यु के बाद इस वर्तमान जीवन में बुरे कर्म करने वालों के लिए नरक एक शाश्वत दण्ड के रूप में और अच्छे कर्म करने वालों के लिए स्वर्ग एक प्रतिफल के रूप में आरक्षित है।

तो फिर क्या कहें, स्वर्ग क्या है? यह ईश्वर (अकाल पुरख) को जानने के अलावा और कुछ भी नहीं है, यह एक ऐसी जगह है, जहाँ परमेश्वर के प्रशांसा के गीत गाए जाते हैं और वह मनुष्य में विश्वास को लाता है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 742)।[vii] और फिर नरक क्या है? यह भी और कुछ नहीं बल्कि जन्म और मृत्यु का चक्र में पुन: लौट जाना है (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 278)।[viii] यही विचार श्री गुरु ग्रंथ साहिब के कई श्लोकों में पाया जाता है। हालाँकि, स्वर्ग में जाने का मार्ग पवित्र वचन अर्थात् शब्द की कमाई करने और सच्चाई की नदी में डुबकी लगाने में दिया गया है।[ix]

इससे एक साधक स्पष्ट रूप से समझ सकता है कि श्री गुरु ग्रंथ मृत्यु के बाद के जीवन को रद्द किए बिना जीवन की वर्तमान स्थिति पर ही जोर देता है। दूसरा, जन्म और मृत्यु के चक्र से बचने के लिए, एक साधक को सर्वशक्तिमान ईश्वर को साकार करना होगा। तीसरा, स्वर्ग इस वर्तमान जीवन में सर्वशक्तिमान ईश्वर से मिलने के अलावा और कुछ नहीं है और अगर ऐसा नहीं होता है, तो नरक यहीं पर शुरू हो जाता है, जो जन्म और मृत्यु के पहिए में फिर से आ जाना होता है। चौथा, इस स्वर्ग या मन की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने का तरीका पवित्र वचन अर्थात् शब्द के साथ पुनर्मिलन और सत्य की नदी में डूबने से होता है। हालाँकि, ये बातें कुछ बुनियादी सवालों को पूछने के लिए मज़बूर कर देती हैं। यह पवित्र वचन अर्थात् शब्द कहाँ है, सत्य की यह धारा कहाँ है और धरती पर रहने वाला एक व्यक्ति अपने वर्तमान के जीवन में ही रहते हुए स्वर्ग को कैसे प्राप्त कर सकता है।

दिलचस्प बात यह है कि ग्रंथ बाइबल इन सभी महत्वपूर्ण सवालों का स्पष्टता के साथ जवाब देता है। ग्रंथ बाइबल कहता है कि सतगुरु यीशु मसीह स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वचन या शब्द है,

“आदि में वचन (शब्द) था, और वचन (शब्द) परमेश्‍वर के साथ था, और वचन (शब्द) परमेश्‍वर था। यही आदि में परमेश्‍वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ, और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई” 

यूहन्ना 1:1-3

। यही शब्द अर्थात् सतगुरु यीशु मसीह इस पृथ्वी पर एक साधक को जीवन-मुक्ता (मोक्ष प्राप्त व्यक्ति) होने के लिए आंमत्रित करने के लिए आ गया।

“और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्‍चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उसकी ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते [सतगुरु यीशु मसीह] की महिमा… अनुग्रह और सच्‍चाई [सुतगुरु] यीशु मसीह के द्वारा पहुँची” ।

यूहन्ना 1:14-17

ग्रंथ बाइबल कहता है कि सतगुरु यीशु मसीह केवल सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वचन या शब्द मात्र ही नहीं हैं, बल्कि “मार्ग और सत्य और जीवन” भी हैं (यूहन्ना 16: 6)। ग्रंथ बाइबल में कहा गया है कि यह सतगुरु यीशु मसीह अमृत जल भी है। यह बात सतगुरु यीशु मसीह के शब्दों में बहुत अच्छी तरह से वर्णित की गई है,

“यदि कोई प्यासा हो तो मेरे पास आए और पीए। जो मुझ पर विश्‍वास करेगा, जैसा पवित्रशास्त्र में आया है, ‘उसके हृदय में से जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी’” 

यूहन्ना 7:37-38

। इसलिए, यह केवल एक घूंट भर पी लेने या एक बार डुबकी लगा लेने की बात नहीं है, यह तो अमृत जल के पूरे सोते को ही प्राप्त करने का एक विषय है।

ठीक इसी समय ग्रंथ बाइबल कहता है कि जब कोई साधक सतगुरु यीशु मसीह से मिलता है, तो उसकी आँखें खुल जाती हैं। वह जीवन की प्राप्ति का एहसास करता है, वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करता है। ग्रंथ बाइबल इन बातों का संक्षेप ऐसे ही एक साधना प्राप्त [सतगुरु यीशु मसीह से मुलाकात किया हुआ व्यक्ति] साधक द्वारा किए गए अनुभव में देता है,

“जब मैं ने उसे देखा तो उसके पैरों पर मुर्दा सा गिर पड़ा। उसने मुझ पर अपना दाहिना हाथ रखकर कहा, ‘मत डर; मैं प्रथम और अन्तिम और जीवता हूँ’” 

प्रकाशितवाक्य 1:17

। ग्रंथ बाइबल में आगे कहा गया है कि सतगुरु यीशु मसीह से मिलने के बाद, एक साधक धरती पर रहते हुए ही स्वर्ग (बैकुण्ठ) में प्रवेश कर जाता है। या, दूसरे शब्दों में कहें तो, एक साधक अपने प्रेमी, दोस्त, दुल्हे, प्रिय से मिल जाता है या कहें कि एक प्रेमिका की मुलाकात एक प्रेमी से हो जाती है, “मेरा प्रेमी मेरा है और मैं उसकी हूँ” (श्रेष्ठगीत 2:16)।

एक साधक अब जीवन-मुक्ता है। वह इस संसार से ताल्लुक नहीं रखता। वह पहले से ही इस संसार की गंदगी को पार कर चुका है। वह भव-सागर (पृथ्वी की चिंता) से पहले ही छुटकारा पा चुका है। वह पहले से ही अपनी यौन इच्छाओं और वासनाओं की लड़ाई को जीत चुका है। उसके शरीर की इंद्रियाँ पूरी तरह से उसके नियंत्रण में हैं। इसलिए, वह अब ‘स्वर्ग का नागरिक’ है (फिलिप्पियों 3:20)। यह विचार सतगुरु यीशु मसीह के शब्दों में और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है, जब उन्होंने कहा कि, मेरा राज्य इस संसार का नहीं है” (यूहन्ना 18:27)।

इसलिए, ग्रंथ बाइबल एक साधक के एक स्पष्ट चित्र को प्रस्तुत करता है, जो ईश्वर प्रात्ति के बाद, अब विदेशी और मुसाफिर नहीं रहा, परन्तु पवित्र लोगों के साथ संगी स्वदेशी और परमेश्‍वर के घराने का हो गया है (इफिसियों 2:19)। इसी के साथ ही वह एक संतुलित मन की अवस्था को भी प्राप्त करता है। क्योंकि परमेश्‍वर ने हमें . . . सामर्थ्य और प्रेम और संयम की आत्मा दी है (2 तीमुथियुस 1: 7)। इस प्रकार, उपरोक्त अध्ययन के प्रकाश में, जो कुछ कहा गया है, उसका निष्कर्ष गुरु अर्जन देव के शब्दों में इस तरह से निकाला जा सकता है: “ब्रह्मांड के ईश्वर से मिलो, इसके लिए अब समय है। इसकी प्राप्ति के लिए युगों के बाद तुम्हें मानव जीवन का उपहार मिला है” (गुरु ग्रंथ, पृष्ठ. 176)।[x] यहाँ इस संसार में रहने वाले व्यक्ति को नैतिक पूर्णता प्राप्त करने के लिए, प्रभु में परम आनंद की प्राप्ति के लिए और जीवन और मृत्यु के इस बंधन से परम उद्धार प्राप्त करने का अवसर मिलता है। इसलिए, सतगुरु यीशु मसीह के वचनों पर विचार करना समय की मांग


[i] मैक्स ऑर्थेर मैक्कॉलिफ, सिख धर्म”,  (खण्ड-1. ऑक्सफोर्ड: क्लेरेंडन प्रैस: 1909), पृष्ठ. ixi.

[ii] ………… .., सिख धर्म दर्शन”, (लुधियाना: सिख मिशनरी कॉलेज), पृष्ठ 29.  (पुस्तक पंजाबी में है)।

[iii] सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥ होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥

[iv] मैक्स ऑर्थेर मैक्कॉलिफ, सिख धर्म”,  (खण्ड-1. ऑक्सफोर्ड: क्लेरेंडन प्रैस: 1909), पृष्ठ. 139.

[v] नरक घोर बहु दुख घणे अकिरतघणा का थानु ॥

[vi] हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥ दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥

[vii] तहा बैकुंठु जह कीरतनु तेरा तूं आपे सरधा लाइहि ॥२॥

[viii] आपस कउ करमवंतु कहावै ॥ जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥

[ix] होइ किरसाणु ईमानु जमाइ लै भिसतु दोजकु मूड़े एव जाणी ॥१॥ मतु जाण सहि गली पाइआ ॥

[x] मिलु जगदीस मिलन की बरीआ ॥ चिरंकाल इह देह संजरीआ ॥१॥ रहाउ ॥

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