हुक्म अर्थात् रज़ा या इच्छा या भाणा एक और महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो एक व्यक्ति को अकाल पुरुख (ईश्वर) के साथ एक होने में मदद करती है। श्री गुरु नानक देव जी के अनुसार, परमेश्वर ने अपनी रचना में और विशेष रूप से हुक्म में, जो सृष्टि को बनाए रखता है, अपना सत्य प्रकट किया है। वह जो इस सत्य को समझता है और इसके अधीन हो जाता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है, “ध्यान, तपस्या और कठोर आत्म-अनुशासन सच्चे गुरु की इच्छा के अधीन ही पाए जाते हैं। यह उसकी कृपा से ही प्राप्त होते हैं” (गुरु ग्रंथ, पन्ना 88)।[i]
अपने सरलतम अर्थ में हुक्म का अर्थ ईश्वरीय आदेश, आज्ञा, विधान, कानून या कभी-कभी इच्छा के रूप में जाना जाता है। किसी भी अन्य धर्म की तरह जो एकईश्वरवाद में विश्वास करता है, हुक्म का सिद्धान्त सिख दर्शन में एक प्रमुख अवधारणा के रूप में पाया जाता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में इसे कभी-कभी “भाणा” या “रज़ा” के रूप में प्रयोग किया जाता है, हुक्म परमेश्वर की विशेषताओं में से एक है। यह परमेश्वर को असीम चेतना प्रदान करता है, फलस्वरूप उसे एक अवैयक्तिक ईश्वर के बजाय एक सक्रिय या क्रियाशील ईश्वर बनाता है। यह ईश्वर की इच्छा है, जो ब्रह्मांड, जीवन, मृत्यु, आनन्द और दुःख के क्रम को निर्धारित करती है और इसलिए, “सब कुछ उस से आया है, ईश्वर स्वयं अपना विस्तार और प्रसार कर रहा है; वह हमेशा अलौकिक शांति में लीन रहता है”(गुरु ग्रंथ, पन्ना. 115, पन्ना. 155 को भी देखें)।[ii]
शब्द, नाम और गुरु सिख धर्म में मोक्ष के तत्व हैं। लेकिन यह हुक्म (रज़ा) है, जो एक साधक को शब्द, नाम और गुरु के अर्थ को समझने में सक्षम बनाता है। श्री गुरु नानक देव जी ने सिखों द्वारा अनिवार्य रूप से की जाने वाली सुबह की प्रार्थनाओं में इसका उपयोग करते हुए इस अवधारणा को मुख्य बनाया है, जिसे हम श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के राग-जपु में पाते हैं। वे स्पष्ट रूप से हुक्म के स्वभाव के बारे में बताते हैं:
“सारा जीवन उसके हुक्म द्वारा रचा गया था; और केवल हुक्म के द्वारा सभों में भिन्नता आती है। कुछ आदर के, कुछ अनादर के पात्र बन जाते हैं, कुछ को उसके हुक्म के अनुसार दुख उठाना होगा और कुछ को सुख की प्राप्ति होगी, कुछ को उसके हुक्म के अनुसार आर्शीवाद मिलता है, जबकि कुछ एक जन्म जमांतरण के चक्र में जाते हैं, सभी उसके हुक्म के भीतर से आए हैं, कोई भी उनके हुक्म से परे नहीं है। हे नानक, वह जो अपने हुक्म को समझता है, वह अहंकार में नहीं बोलता है” (गुरु ग्रंथ, पन्ना. 1)।[iii]
यद्यपि, श्री गुरु नानक देव के अनुसार, हुक्म यह संकेत देता है कि, “यह ब्रह्मांड और उसकी हलचल के अस्तित्व को नियंत्रित करने और बनाए रखने का सिद्धांत है।”[iv] तौभी सिख धर्म का यह हुक्म मानवीय समझ की पहुँच से परे है। हालाँकि, हुक्म के ज्ञान की समझ मोक्ष की प्राप्ति नहीं है, अपितु यह तो मात्र आध्यात्मिक प्राप्ति है। सिख धर्म के विश्वकोश ने हुक्म को निम्नलिखित तरीके से समझाया है।
“हुक्म को पालन करने या हुक्म के सिद्धांत के अनुसार किसी के जीवन को समायोजित करने पर जोर दिया गया है, लेकिन हुक्म को साकार करना एक रहस्यमय अनुभव की . . [प्राप्ति पर] छोड़ दिया गया है। इसे मानवीय भाषा में नहीं समझाया जा सकता है। हुक्म का साकार होना न केवल इस तरह के सिद्धांत के अस्तित्व का होना प्रमाणित करता है, बल्कि यह एक आलौकिक आंतरिक प्रकाश पुंज की प्राप्ति भी है। इस आंतरिक प्रकाश पुंज से कोई भी नैतिक मार्ग को देख सकता है या यह जान सकता है कि हुक्म के अधीन हो किस तरह से
चलना है।”[v]
इसलिए, जो कोई हुक्म को समझता है, वह परमेश्वर की इच्छा को समझता है। वह जो स्वयं को ईश्वर की इच्छा के अधीन करता है, स्वयं को प्रभु से एकाकार होने के लिए दे देता है और इस प्रकार मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त करता है। इस तरह से, यह स्पष्ट हो जाता है कि एक सिख को स्वयं को इस हुक्म के अधीन होने के लिए बुलाया गया है, जो कि ईश्वरीय विधान या कानून या इच्छा है। लेकिन तब, यह एक मौलिक प्रश्न को खड़ा कर देता है कि इसके बारे में आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाए। हुक्म के अधीन अपने आप को लाने के लिए एक व्यक्ति को क्या करना चाहिए? इसे कैसे प्राप्ति किया जा सकता है? इस महत्वपूर्ण लेकिन जीवन-देने वाले प्रश्न का उत्तर हमें ग्रंथ बाइबल में मिलता है।
आइए देखें कि यह ग्रंथ बाइबल इसका समाधान कैसे करता है। हम जानते हैं कि अपने शरीर के कारण मनुष्य की इन्द्रियाँ ईश्वरीय बातों के विरूद्ध हैं, फलस्वरूप ईश्वरीय विधान के विरूद्ध या ईश्वर की प्रभुता सम्पन्न इच्छा के विरूद्ध जिसके द्वारा ईश्वर ब्रह्मांड के अस्तित्व और उसकी हलचल के सिद्धांत को बनाए रखता है। उन्होंने परमेश्वर के एक साधक की आंखों पर पट्टी बांध दी है। वे एक साधक को ऐसे जघन्य पाप या बुरे कर्म करने के लिए उकसाती हैं, जो उसे विनाश की ओर ले चलता है। इसलिए ग्रंथ बाइबल कहती है कि सभी ने ईश्वरीय आदेश या ईश्वर द्वारा स्थापित कानून के विरूद्ध पाप किया है, इसलिए हर एक मूल रूप से ईश्वर की इच्छा से रहित हो गया, फलस्वरूप मनुष्य परमेश्वर की महिमा से वंचित है
रोमियों 3:23
इस प्रकार, हम परमेश्वर के विधान को तोड़ने के लिए दोषी हैं। इसके अतिरिक्त, पाप ने मनुष्य को परमेश्वर के कानून या आदेश के विरूद्ध विद्रोह करने का कारण बना दिया। रोमियों 8:7 में ग्रंथ बाइबल कहता है कि, “क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि यह परमेश्वर के विधान के अधीन नहीं है।” स्वाभाविक रूप से एक व्यक्ति ईश्वरीय नियम का पालन नहीं करना चाहता है, क्योंकि पाप ने मनुष्य को हर ओर से दूषित किया है और परमेश्वर और साथी मनुष्यों के साथ उसका संबंध भी इसके कारण भ्रष्ट हो गया। हम इस भ्रष्टाचार के प्रभाव को हर स्थान पर देखते हैं, हम इसे अपने परिवार के सदस्यों में, समाज के साथ हमारे संबंधों में, हमारे आस-पास के संसार में और सबसे दयालु और कृपालु प्रभु परमेश्वर के साथ अपने संबंधों में देखते हैं।
हालाँकि, ग्रंथ बाइबल इस समस्या का समाधान सतगुरु यीशु मसीह के माध्यम से हमारे पापों को क्षमा करके प्रदान करता है। यदि ऐसा होता है, तो साधक (प्रेमी) अपने ईश्वर (प्रेमिका) के साथ फिर से जुड़ सकता है। ऐसा करने से सम्बन्ध बहाल होंगे और परम आनंद की प्राप्त होगा। प्रेमिका का गहना खुशी, उत्साह, विस्मय और सुख का होगा। ग्रंथ बाइबल आगे बताता है, कि परमेश्वर एक साधक को क्षमा मांगने के लिए आमंत्रित करता है:
“आओ, हम आपस में वादविवाद करें : तुम्हारे पाप चाहे लाल रंग के हों, तौभी वे हिम के समान उजले हो जाएँगे; और चाहे अर्गवानी रंग के हों, तौभी वे ऊन के समान श्वेत हो जाएँगे” ।
यशायाह 1:18
परन्तु, एक बार फिर, इस क्षमा को प्राप्त करने का विकल्प एक साधक की अपनी स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर करता है, चाहे वह इसे प्राप्त करने का निर्णय ले या न ले। कृपालु परमेश्वर उसे क्षमा करने के लिए सदैव तैयार रहता है, क्योंकि ग्रंथ बाइबल कहती है,
“यदि हम कहें कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं, और हम में सत्य नहीं। 9यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है।”।
1 यूहन्ना 1: 8-9
सच्चाई तो यह है कि ग्रंथ बाइबल एक साधक या खोजी को और भी प्रोत्साहित करते हुए ऐसे कहता है,
“इसलिये … अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ। यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारे मन के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिससे तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो”
रोमियों 12:1-2
। इस तरह हुक्म की जानकारी का ज्ञान एक आध्यात्मिक वास्तविकता बन जाता है।
इसलिए, जब हम अपने अध्ययन का समापन करते हैं, तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के शब्दों को यहाँ उद्धृत करना सही है,
“हे मेरे प्यारिया, वह जो ईश्वरीय आदेश को समझ लेता, हे प्रभु, वह सत्य और सम्मान को प्राप्त करता है?” (गुरु ग्रंथ, पन्ना. 636, और इन्हें भी देखें, गुरु ग्रंथ, पन्ना. 832,
और गुरु ग्रंथ, पन्ना. 1279)।[vi]
[i] ਜਪੁ ਤਪੁ ਸੰਜਮੁ ਭਾਣਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਕਾ ਕਰਮੀ ਪਲੈ ਪਾਇ ॥
[ii] ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪਿ ਮਿਲਿ ਰਹਿਆ ਸਹਜੇ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਣਿਆ ॥੫॥
[iii] ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਜੀਅ ਹੁਕਮਿ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ॥ ਹੁਕਮੀ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਹੁਕਮਿ ਲਿਖਿ ਦੁਖ ਸੁਖ ਪਾਈਅਹਿ ॥
ਇਕਨਾ ਹੁਕਮੀ ਬਖਸੀਸ ਇਕਿ ਹੁਕਮੀ ਸਦਾ ਭਵਾਈਅਹਿ ॥ ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਕੋ ਬਾਹਰਿ ਹੁਕਮ ਨ ਕੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੈ ਜੇ ਬੁਝੈ ਤ ਹਉਮੈ ਕਹੈ ਨ ਕੋਇ ॥੨॥
[iv] डब्लूय. एच. मेक्होद. “गुरू नानक और सिख धर्म.” 2री छपाई, दिल्ली:औयूपी, 1978. पृ. 201.
[v] जेम्स हेस्टिंग्स. “सिख धर्म के विश्वकोश.” दिल्ली: आईएसपीसीके, 1996. पृ. 288.
[vi] ਹੁਕਮੁ ਸਿਞਾਪੈ ਸਾਹ ਕਾ ਪਿਆਰੇ ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ ਹੋਇ ॥੬॥